मार्गदर्शक- सन्त रविदास - Indian heroes

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Sunday 8 January 2017

मार्गदर्शक- सन्त रविदास




हमारे भारत देश की पावन भूमि पर अनेक साधु-सन्तों, ऋषि-मुनियों, योगियों-महर्षियों और महामानवों  ने जन्म लिया है और अपने अलौकिक ज्ञान से समाज को अज्ञान, अधर्म एवं अंधविश्वास के अनंत अंधकार से निकालकर एक नई स्वर्णिम आभा प्रदान की है। चौदहवीं सदी के दौरान देश में जाति-पाति, धर्म, वर्ण, छूत-अछूत, पाखण्ड, अंधविश्वास का साम्राज्य स्थापित हो गया था। हिन्दी साहित्यिक जगत में इस समय को मध्यकाल कहा जाता है। मध्यकाल को भक्तिकाल कहा गया। भक्तिकाल में कई बहुत बड़े सन्त एवं भक्त पैदा हुए, जिन्होंने समाज में फैली कुरीतियों एवं बुराइयों के खिलाफ न केवल बिगुल बजाया, बल्कि समाज को टूटने से भी बचाया। इन सन्तों में से एक थे, सन्त कुलभूषण रविदास, जिन्हें रैदास के नाम से भी जाना जाता है।
सन्त रविदास का जन्म सन् 1398 में माघ पूर्णिमा के दिन काशी के निकट माण्डूर नामक गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम संतोखदास (रग्घु) और माता का नाम कर्मा (घुरविनिया) था। सन्त कबीर उनके गुरु भाई थे, जिनके गुरु का नाम रामानंद था। सन्त रविदास बचपन से ही दयालु एवं परोपकारी प्रवृति के थे। उनका पैतृक व्यवसाय चमड़े के जूते बनाना था। लेकिन उन्होंने कभी भी अपने पैतृक व्यवसाय अथवा जाति को तुच्छ अथवा दूसरों से छोटा नहीं समझा।
सन्त रविदास अपने काम के प्रति हमेशा समर्पित रहते थे। वे बाहरी आडम्बरों में विश्वास नहीं करते थे। एक बार उनके पड़ौसी गंगा स्नान के लिए जा रहे थे तो उन्होंने सन्त रविदास को भी गंगा-स्नान के लिए चलने के लिए कहा। इस पर सन्त रविदास ने कहा कि मैं आपके साथ गंगा-स्नान के लिए जरूर चलता लेकिन मैंने आज शाम तक किसी को जूते बनाकर देने का वचन दिया है। अगर मैं तुम्हारे साथ गंगा-स्नान के लिए चलूंगा तो मेरा वचन तो झूठा होगा ही, साथ ही मेरा मन जूते बनाकर देने वाले वचन में लगा रहेगा। जब मेरा मन ही वहां नहीं होगा तो गंगा-स्नान करने का क्या मतलब। इसके बाद सन्त रविदास ने कहा कि यदि हमारा मन सच्चा है तो इस कठौती में भी गंगा होगी अर्थात् ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’।  उसने सन्त रविदास के चरण पकड़ लिए और उसका शिष्य बन गया। धीरे-धीरे सन्त रविदास की भक्ति की चर्चा दूर-दूर तक फैल गई और उनके भक्ति के भजन व ज्ञान की महिमा सुनने लोग जुटने लगे और उन्हें अपना आदर्श एवं गुरु मानने लगे।
सन्त रविदास समाज में फैली जाति-पाति, छुआछूत, धर्म-सम्प्रदाय, वर्ण विशेष जैसी भयंकर बुराइयों से बेहद दुखी थे। समाज से इन बुराइयों को जड़ से समाप्त करने के लिए सन्त रविदास ने अनेक मधुर व भक्तिमयी रसीली कालजयी रचनाओं का निर्माण किया और समाज के उद्धार के लिए समर्पित कर दिया। सन्त रविदास ने अपनी वाणी एवं सदुपदेशों के जरिए समाज में एक नई चेतना का संचार किया। उन्होंने लोगों को पाखण्ड एवं अंधविश्वास छोड़कर सच्चाई के पथ पर आगे बढऩे के लिए प्रेरित किया।
सन्त रविदास के अलौकिक ज्ञान ने लोगों को खूब प्रभावित किया, जिससे समाज में एक नई जागृति पैदा होने लगी। सन्त रविदास कहते थे कि राम, कृष्ण, करीम, राघव आदि सभी नाम परमेश्वर के ही हैं और वेद, कुरान, पुरान आदि सभी एक ही परमेश्वर का गुणगान करते हैं।
कृष्ण, करीम, राम, हरि, राघव, सब लग एकन देखा।
वेद कतेब, कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।।
सन्त रविदास का अटूट विश्वास था कि ईश्वर की भक्ति के लिए सदाचार, परोपकार तथा सद्व्यवहार का पालन करना अति आवश्यक है। अभिमान त्यागकर दूसरों के साथ व्यवहार करने और विनम्रता तथा शिष्टता के गुणों का विकास करके ही मनुष्य ईश्वर की सच्ची भक्ति कर सकता है। सन्त रविदास ने अपनी एक अनूठी रचना में इसी तरह के ज्ञान का बखान करते हुए लिखा है :
कह रैदास तेरी भगति दूरी है, भाग बड़े सो पावै।
तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै।।
एक ऐतिहासिक उल्लेख के अनुसार, चित्तौड़ की कुलवधू राजरानी मीरा रविदास के दर्शन की अभिलाषा लेकर काशी आई थीं। सबसे पहले उन्होंने रविदास को अपनी भक्तमंडली के साथ चौक में देखा। मीरा ने रविदास से श्रद्धापूर्ण आग्रह किया कि वे कुछ समय चित्तौड़ में भी बिताएं। संत रविदास मीरा के आग्रह को ठुकरा नहीं पाए। वे चित्तौड़ में कुछ समय तक रहे और अपनी ज्ञानपूर्ण वाणी से वहां के निवासियों को भी अनुग्रहीत किया। सन्त रविदास की भक्तिमयी व रसीली रचनाओं से बेहद प्रभावित हुईं और वो उनकीं शिष्या बन गईं। इसका उल्लेख इस पद में इस तरह से है :
वर्णाश्रम अभिमान तजि, पद रज बंदहिजासु की।
सन्देह-ग्रन्थि खण्डन-निपन, बानि विमुल रैदास की।।
संत रविदास मानते थे कि हर प्राणी में ईश्वर का वास है।
इसलिए वे कहते थे :
सब में हरि है, हरि में सब है, हरि आप ने जिन जाना।
अपनी आप शाखि नहीं दूजो जानन हार सयाना।।
इसी पद में सन्त रविदास ने कहा है :
मन चिर होई तो कोउ न सूझै जानै जीवनहारा।
कह रैदास विमल विवेक सुख सहज स्वरूप संभारा।

सन्त रविदास ने मथुरा, प्रयाग, वृन्दावन व हरिद्वार आदि धार्मिक एवं पवित्र स्थानों की यात्राएं कीं। उन्होंने लोगों से सच्ची भक्ति करने का सन्देश दिया।
सन्त रविदास ने मनुष्य की मूर्खता पर व्यंग्य कसते हुए कहा कि वह नश्वर और तुच्छ हीरे को पाने की आशा करता है लेकिन जो हरि हरि का सच्चा सौदा है, उसे प्राप्त करने की चेष्टा नहीं करता है।
हरि सा हीरा छांड कै, करै आन की आस।
ते नर जमपुर जाहिंगे, सत आषै रविदास।।

कुलभूषण रविदास ने सामाजिक, धार्मिक एवं राष्ट्रीय एकता के लिए भी समाज में जागृति पैदा की। उन्होंने कहा:
रैदास कनक और कंगन माहि जिमि अंतर कछु नाहिं।
तैसे ही अंतर नहीं हिन्दुअन तुरकन माहि।।
हिन्दु तुरक नहीं कछु भेदा सभी मह एक रक्त और मासा।
दोऊ एकऊ दूजा नाहीं, पेख्यो सोइ रैदासा।।
सन्त रविदास ने इसी सन्दर्भ में ही कहा है :
मुसलमान सो दोस्ती हिन्दुअन सो कर प्रीत।
रैदास जोति सभी राम की सभी हैं अपने मीत।।
सन्त रविदास ने लोगों को समझाया कि तीर्थों की यात्रा किए बिना भी हम अपने हृदय में सच्चे ईश्वर को उतार सकते हैं।
का मथुरा का द्वारिका का काशी हरिद्वार।
रैदास खोजा दिल आपना तह मिलिया दिलदार।।
सन्त रविदास ने जाति-पाति का घोर विरोध किया। उन्होंने कहा :
रैदास एक बूंद सो सब ही भयो वित्थार।
मूरखि है जो करति है, वरन अवरन विचार।।
सन्त रविदास अपने उपदेशों में कहा कि मनुष्य को साधुओं का सम्मान करना चाहिए, उनका कभी भी निन्दा अथवा अपमान नहीं करना चाहिए। वरना उसे नरक भोगना पड़ेगा। वे कहते हैं :
साध का निंदकु कैसे तरै।
सर पर जानहु नरक ही परै।।
सन्त रविदास ने जाति-पाति और वर्ण व्यवस्था को व्यर्थ करार दिया और कहा कि व्यक्ति जन्म के कारण ऊंच या नीच नहीं होता। सन्त ने कहा कि व्यक्ति के कर्म ही उसे ऊंच या नीच होता है।
रैदास जन्म के कारणों, होत न कोई नीच।
नर को नीच करि डारि है, ओहे कर्म की कीच।।
इस प्रकार कुलभूषण रविदास ने समाज को हर बुराई, कुरीति, पाखण्ड एवं अंधविश्वास से मुक्ति दिलाने के लिए ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया और असंख्य मधुर भक्तिमयी कालजयी रचनाएं रचीं। उनकीं भक्ति, तप, साधना व सच्चे ज्ञान ने समाज को एक नई दिशा दी और उनके आदर्शों एवं शिक्षाओं का मानने वालों का बहुत बड़ा वर्ग खड़ा हो गया, जोकि ‘रविदासी’ कहलाते हैं। ।
सन्त रविदास द्वारा रचित ‘रविदास के पद’, ‘नारद भक्ति सूत्र’, ‘रविदास की बानी’ आदि संग्रह भक्तिकाल की अनमोल कृतियों में गिनी जाती हैं।  स्वामी रामानंद के ग्रन्थ के आधार पर संत रविदास का जीवनकाल संवत् 1471 से 1597 है। उन्होंने यह 126 वर्ष का दीर्घकालीन जीवन अपनी अटूट योग और साधना के बल पर जीया।

संत रविदास जी की जो बात मुझे सबसे अच्छी लगी वह यही है की उन्होंने अपनी आजीविका कमाते कमाते ही अपना दर्शन विकसित किया और संत का जीवन व्यतीत किया, उन्होंने भिक्षा का सहारा नहीं लिया|

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