जालिमों से लड़ती भीम की रमाबाई थी
मजलूमों को बढ़ के जो,आँचल उढ़ाई थी
जाति धर्म चक्की में पिसते अवाम को
दलदल में डूबते समाज को बचाई थी
एक-एक पैसे से,भीम को पढ़ाई थी
मेहनत मजदूरी से जो भी जुटाई थीं
गोबर इकट्ठा बना कण्डी के उपले
बज़ारों में बेच कैसे घर को चलाई थी
अमेरिका से लंदन,बैरिस्टर से डाक्टर
हौसला हर मोड़ पर रमाई बढ़ाई थी
भूखे पेट बच्चे कुपोषित ही मर गये
जब रोटी न पैसा न घर में दवाई थी
तड़पते मरते गये गोद में यूं लाल सभी
खुशी की उम्मीदों संग कैसी जुदाई थी
भूखी प्यासी वो बीमार कई रात रही
माँ ने लोगों के लिये खुद को मिटाई थी
रमा की आँसू में भीम विदेशों में बहते थे
मगर इस तूफान में भी कश्ती चलाई थी
विद्वान हो महान भीम रामू न भूल सके
तन और मन से जो उनकी सगाई थी
खून व पसीने से सींचती थी क्यारियाँ
हँसते चमन की कली जो मुरझाई थी
एक तरफ फूले सावित्री थे साथ लड़े
“बागी” भीम साथ वैसे मेरी रमाई थी.
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