- आचार्य चाण्क्य ने कहा है कि मनुष्य में चार बातें सम्भवतः होनी उचित हैं। वे हैं - दान की कामना, मृदु वाणी, सहनशीलता और उचित या अनुचित का ज्ञान। ये बातें मनुष्य में सहज भाव से ही विद्यमान होनी चाहिए, अभ्यास से ये गुण मनुष्य में नहीं आ सकते।
- जिस प्रकार एक राजा अत्यधिक अधर्म के व्यवहार से समाप्त हो जाता है, उसका पाप उसे नष्ट कर देता है, ठीक उसी प्रकार अपने व्यक्तियों को त्यागकर दूसरे को अपनाने वाला बेवकूफ व्यक्ति स्वयं ही नष्ट हो जाता है। दूसरे व्यक्ति अन्ततः इसी नतीजे पर पहुंचते हैं कि जो अपनों का ही न हो सका, वह हमारा क्या होगा? इस अविश्वास या शंका के कारण से वह विनाश का पात्र होता है।
- छोटे से अंकुश से इतने बड़े गज को साधना, छोटे से दीपक से इतने विशाल व्यापक अंधेरे का पतन होना तथा छोटे से वज्र से विशाल उन्नत पर्वतों को तोड़ना इस सच के साक्ष्य हैं कि तेज-ओज की ही विजय होती है, तेज से ही शक्ति निहित रहती है। मोटापे को बल का प्रतीक नहीं समझ लेना चाहिए, यानि मोटे मनुष्य को बलवान समझ लेना भ्रान्ति ही है।
- आचार्य चाणक्य कहते हैं कि गृह के सुखों तथा परिवार में मोह-पाश में जकड़ने वाला कभी भी विद्या की प्राप्ति नहीं कर सकता। विद्या प्राप्ति एक तपस्या है, जिसके लिए अनेक पापड़ बेलने पड़ते हैं, श्रम या मेहनत करनी पड़ती है और देश-विदेश भ्रमण भी करना पड़ता है। मांस भक्षण करने वाले के हृदय में स्नेह भाव नहीं पैदा हो सकता, मांसाहारी तो हिंसक ही होता है। धन का लोभी या कंजूस सत्यभाषण भी नहीं कर सकता, उसे तो जिस किसी भी मार्ग या साधन से धन प्राप्ति ही अभीष्टतम होती है। स्तियों में आसक्त या रत रहने वाला मनुष्य कभी सदाचारी नहीं रह सकता। कामासक्त मनुष्य विचारों और व्यवहार में पवित्रता नहीं रख सकता।
- नीम के पेड़ की जड़ को दूध और घी से सींचने पर भी नीम का पेड़ जिस प्रकार से अपना कड़वापन या कड़वा स्वाद त्यागकर मृदु कदापि नहीं हो सकता, उसी प्रकार दुष्ट या क्रूर व्यक्ति को कितना भी सिखाने का यत्न किया जाए, समझाया जाए, वह अपनी दुर्जनता रूप शूल को त्यागकर कभी सज्जनता को नहीं ग्रहण कर सकता, तात्पर्य यह है कि दुर्जन को समझाने की प्रयासरत बातें व्यर्थ ही साबित होती हैं।
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