- आचार्य चाण्क्य ने कहा है कि आनन्द या खुशी की हिलोरों से परिपूर्ण गृह हो, पुत्र और पुत्रियां उत्तम बुद्धी से सहित हों। नारी मधुरभाषी हो, परिश्रम और ईमानदारी से गूंथा हुआ धन हो, श्रेष्टतम मित्र हो, अपनी भार्या में ही स्नेह व अनुराग अंकुरित हो, नौकर या सेवक और सेविकाएं अपने स्वामी के आदेश पालन में तत्पर हों, अतिथियों या मेहमानों का श्रेष्ठ आदर मान-सम्मान हो, कल्याणकारी परमेश्वर की आराधना नित्य होती हो, गृह में प्रतिदिन मृदु स्वादिष्ट भोज्य पदार्थों और शीतल पेयों की समुचित व्यवस्था हो और सदैव सज्जन, श्रेष्ठ पुरूषों की संगति की पूजा हो, ऐसा गृहस्थाश्रम धन्य और प्रशंसनीय होता है।
- दयालु और करूणापूर्ण व्यक्ति दुखी तथा पीड़ाप्रद ब्राह्मणों को श्रद्धापूर्वक जो थोड़ा-सा भी दान देता है, वह उतना ही नहीं होता, अपितु दान उस मनुष्य को ईश्वर की कृपा दृष्टि से अनन्त होकर पुनः सम्यक् प्रकार से प्राप्त हो जाता है।
- अपने जनों के संग सज्जनता, नम्रता, दूसरे जनों के प्रति दया, दुर्जनों के प्रति सदैव दुष्टता, सज्जनों के प्रति स्नेह, दुष्टों के प्रति हेकड़पना एवं विद्वानों के संग सरलता, वैरियों के प्रति शूरवीरता, मां-पिताश्री, आचार्य आदि बड़े पूज्य व्यक्तियों के संदर्भ में सहिष्णुता, सहनशीलता, स्त्रियों के प्रति यकीन, इस प्रकार से जो मनुष्य इन कलाओं में पारंगत होते हैं, उन्हीं पर जगत् दृढ़ है।
- आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जिसके दोनों हाथ दान से विमुख हैं, जिसने जीवन में कभी दान कर्म नहीं किया, दोनों कान वेद और शास्त्रों से द्रोह करने वाले हैं, यानि जिसके कानों ने कभी वेदादि का श्रवण नहीं किया, दोनों नेत्र या आंखें सज्जन पुरूषों के दर्शन मात्र से पृथक हैं, जिसकी आंखों ने साधु-महात्माओं के दर्शन नहीं किए, पैरों से तीर्थ (मां-बाप), आचार्य, अतिथि की सेवार्थ उनके निकट गमन नहीं किया, अन्याय से उपार्जित धन से जिसका पेट भरा हुआ है और मस्तक गर्व से ऊंचा उठा हुआ है, सियार रूपधारी, नीच प्रकृति मनुष्य! तू ऐसे नीच और अत्यन्त निन्दनीय देह को अतिशीघ्र त्याग दे, यानि ऐसे गुण गुण विहीन जीवन की अपेक्षाकृत अतिशीघ्र मृत्यु प्राप्त कर लेना ही उत्तम मार्ग है।
- यदि करील की झाड़ी में पत्ते नहीं उगते, नहीं पनपते, तब इसमें वसन्त ऋतु का क्या दोष? यदि उल्लू दिन में नहीं देखता तो सूर्य का क्या अपराध? यदि उल्लू दिन में नहीं देखता तो सूर्य का क्या अपराध? यदि चातक के मुख में वर्षा की बूंदे नहीं गिरतीं तो मेघ या बादल का क्या जुर्म? विधाता ने पूर्व से ही जो कुछ पुरूष के मस्तक की लकीरों में लिख रखा है, भाग्य में लिख दिया है, उसे मिटाने में कौन समर्थवान है यानि भोग को तो पूरा ही करना पड़ता है या भोगना पड़ता है।
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