- लोक-परलोक में निषिद्ध कर्मों या कार्यों को करने वाले पुरूष का जीवन का थोड़ा समय भी व्यर्थ है। उसे चाहिए कि सत्कर्मों के जरियए या गुजरकर लोक-परलोक सुधारे। सत्कर्म करते हुए जीवित रहने वाले व्यक्ति की तो सद्पुरूष भी प्रशंसा का पात्र या प्रशंसा करते हैं।
- ( व्याख्या - आचार्य चाणक्य ने कहा है कि पुरूष को ऐसे कर्म करने ही चाहिए, जिससे उसका यश या कीर्ति हमेशा ही फैलती रहे। विद्या, दान, तपस्या, सत्य भाषण, धनोपार्जन के क्षेत्र में उसकी कीर्ति या यश दसों दिशाओं में फैलनी ही चाहिए। ऐसे सद्कर्म करने के लिए हजारों सालों के जीवन की अपेक्षाकृत यदि अल्प समय के लिए भी जीवन मिले तो श्रेष्ठ है। )
- आचार्य चाणक्य ने कहा है कि बीते हुए का शोक कदापि न करें, भविष्य की चिंता कदापि न करें, आप केवल वर्तमान में समय को सुधारने का यत्न अवश्य ही करें।
- ईश्वर अपने भक्त, सद्पुरूष अपने आश्रित या शरणागत और पिता अपने पुत्र के स्वभाव से ही हर्षित होते हैं। इन्हें किसी भी प्रकार का लोभ नहीं होता और न ही वे किसी प्रलोभन के अग्रही होते हैं। बन्धु-बान्धव श्रेष्ठ खान-पान से हर्षित होते हैं। ये खुले मन या हृदय से आवभगत या सत्कार करने व सेवाभाव से ही सन्तुष्ट होते हैं, परन्तु सच्चे ब्राह्मण मधुर या मृदु व्यवहार या आचरण से ही हर्षित होते हैं।
- आचार्य चाणक्य ने कहा है कि- महात्माओं का चरित्र बड़ी ही विचित्र प्रकृति का होता है। वे लक्ष्मी को तृणवत् समझते हैं, किन्तु जब उनके सम्मुख लक्ष्मी संगठित या एकत्रित हो जाती है, तो वे अपने भार या वनज से दबकर झुक जाते हैं।
- ( व्याख्या - चाणक्य ने कहा है कि महान आत्मा (महात्माओं) का चरित्र विद्वानों के लिए भी एक पहेली ही है। वे लक्ष्मी को घास के समान रूप तुच्छ समझते हैं, किन्तु उसी घास के तिनकों का ढेर जब उनके पास संग्रहित हो जाता है तो उनका व्यक्तित्व उसके भार या वनज को सम्भाल न पाने के मूल कारण से झूक जाता है अर्थात महान आत्माएं अतुल धन-वैभव को प्राप्त करके भी नम्र या विनम्र हो जाती हैं। इन्हें क्षुद्र आत्मा थोड़ी-सी उपलब्धि हासिल होते ही अहंकार या घमंड या गर्व से भौहें तन जाती हैं। उदाहरणार्थ - जैसे बिना फल के वृक्ष को देखा जाए तो वह हमेशा घमंडी की तरह तना रहता है, न छाया होता है और नही फल। इसके विपरीत फलों से लदा होने के कारण वृक्ष झुक जाता है, छाया भी देता है और फल भी देता है। )
- यदि किसी व्यक्ति विशेष से लगाव या प्रेम या स्नेह न हो तो उसके सुख-दुःख से क्या लेना-देना ? स्पष्ट है कि दुःखों का मूल कारण स्नेह ही है। इसलिए ज्ञानी पुरूष को चाहिए कि वह स्नेह का सर्वथा त्याग अवश्य ही कर दे, जिससे वह निश्चित होकर जीवन यापन कर जी सके।
- ( व्याख्या - आचार्य चाणक्य ने यही स्पष्ट किया है कि जीवन में समस्त दुःखों का मूल आधार प्रेम या प्रीति ही है। जिस पुरूष को अपने जिस आत्मीय या हृदयवासी के प्रति स्नेह होता है, उसे उसी के दुःख-सुख की, उसी के रूष्ट-तुष्ट होने की चिन्ता और डर बना रहता है। स्नेह ही दुःखों की आधारशिला है। स्नेह के कारण ही तेल या घी में दीपक की बाती भी जलकर स्याह हो जाती है। पतंगा भी दीपक की लौ में जलकर राख हो जाता हैं। ठीक इसी प्रकार से पुरूष अपने माता-पिताश्री, पुत्र-पुत्री या बेटा-बेटी, पत्नी या भार्या और बन्धु बान्धवों की आसक्ति के मूल कारण इस जगरूपी चक्की में पिसता ही रहता है। )
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