हिंदू धर्म और हिदू समाज की दशा भी बहुत हास्यास्पद थी । हिंदुओं के धर्मस्थानों, कुओं व तालाब पर कुता-बिल्ली, गाय-भैंस व गथे इत्यादि तो पानी पी सकते है, नहा सकते है परंतु उसी तालाब से एक (अछूत) मनुष्य अपनी प्यास नहीं बुझा सकता, चाहे वह प्यास से मर ही क्यों न रहा हो । प्राकृतिक तथ्य है कि नहाते वक्त मूत्र-त्याग होता है । जो पानी, पशुओं के पेशाब से अपवित्र नहीं होता, वह अछूत मनुष्य के छूने भर से अपवित्र हो जाता है ऐसा हिन्दुओं का मानना रहा है। आज भी पशु का पेशाब हिन्दुओं के लिए एक पवित्र वस्तु है ।
डा. अंबेडकर जानते थे कि स्वतंत्रता व अधिकार कभी भिक्षा की तरह मांगने से नहीं मिलते, इसकी प्राप्ति के लिए सिर कटाने पड़ते हैं। 19 व 20 मार्च 1927 को महाड नामक स्थान पर दलितों की एक विशाल सभा आयोजित की गई । डॉ. अंबेडकर जब अपना अध्यक्षीय भाषण देने खडे हुए, तो पंडाल तालियों से गूँज उठा। भीम गरजे, “उन माता-पिता और पशुओं में कोई अंतर नहीँ होगा, यदि वह अपनी संतान को अपने से अच्छी स्थिति में देखने की इच्छा न करें ।” उन्होंने कहा कि मृत पशुओं का मांस खाना छोड़ दो, बेगारी करना बंद कर दो। कुछ टुकड़ो लिए अपने आपको दास न बनाओ । हमारी उन्नति तभी हो सकती है, यदि हम अपने में स्वाभिमान की भावना उत्पन्न करें और हम स्वयं को पहचानें । डॉ. अंबेडकर ने महाड़ के चवदार तालाब से पानी लेकर अछूत लोगो को अपने अधिकारों को छीनने व प्रयोग करने के लिए ललकारा । वे अपने लोगों का जुलूस लेकर चवदार तालाब पर गए व पानी पीया । अछूत लोगो ने स्वर्णो के तालाब से पानी पीकर सदियों से लगे प्रतिबंध का खात्मा किया व अपने अधिकारों का झंडा गाड़ दिया ।
कुछ तिलमिलाए स्वर्णो ने सभा के पंडाल पर हमला कर दिया, जहाँ लोग पंक्तियो में बैठे खाना खा रहे थे । उन्होने खाने पीने की चीजों में मिट्टी मिला दी और लोगों पर लाठी बरसानी शुरू कर दी । कई लोगो को चोट आई | परंतु चवदार तालाब का पानी पीकर जो स्वाभिमान व माननीय अधिकार अछूतों ने हासिल किया था, उसके मुकाबले ये चोट कुछ भी न थी । इस घटना ने भारत के अछूत लोगो मे अभूतपूर्व हिम्मत जगाई। डॉ. अंबेडकर की भरपूर प्रशंसा की गई और दलित लोग उनकी ओर नेतृत्व एवं शरण के लिए देखने लगे ।
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