बुद्ध का दर्शन वर्जनाओं का दर्शन है। सबसे पहले वह वर्णाश्रम व्यवस्था पर प्रहार करते हैं। उस व्यवस्था पर प्रहार करते हैं, जो ब्राह्मणों को विशेषाधिकार संपन्न बनाती है। पुरोहितवाद की जरूरत को नकारते हुए वे कहते हैं—‘अप्प दीपो भव!’ अपना दीपक आप बनो। ..श्री. ओम प्रकाश कश्यप - Indian heroes

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Friday 20 January 2017

बुद्ध का दर्शन वर्जनाओं का दर्शन है। सबसे पहले वह वर्णाश्रम व्यवस्था पर प्रहार करते हैं। उस व्यवस्था पर प्रहार करते हैं, जो ब्राह्मणों को विशेषाधिकार संपन्न बनाती है। पुरोहितवाद की जरूरत को नकारते हुए वे कहते हैं—‘अप्प दीपो भव!’ अपना दीपक आप बनो। ..श्री. ओम प्रकाश कश्यप

बुद्ध स्वयं राजकुमार थे। उनके समकालीन महावीर स्वामी भी राजकुमार ही थे। दोनों ने ही राजनीतिक सुख-सुविधाओं को ठुकराकर अध्यात्म-चिंतन का मार्ग चुना था। राजघराना छोड़कर उन्होंने चीवर धारण किया था। इसलिए बाकी वर्गों में विशेषकर उन लोगों में जो ब्राह्मणों और उनके कर्मकांडों से दूर रहना चाहते थे, जैन और बौद्धधर्म की खासी पैठ बनती चली गई। मगर सामाजिक स्थितियां बौद्ध धर्म के पक्ष में थीं। इसलिए कि एक तो वह व्यावहारिक था। दूसरे जैन दर्शन में अहिंसा आदि पर इतना जोर दिया गया था कि जनसाधारण का उसके अनुरूप अपने जीवन को ढाल पाना बहुत कठिन था। यज्ञों एवं कर्मकांडों के प्रति जनसामान्य की आस्था घटने से उनकी संख्या में गिरावट आई थी। उनमें खर्च होने वाला धर्म विकास कार्यों में लगने लगा था। पहले प्रतिवर्ष हजारों पशु यज्ञों में बलि कर दिए जाते थे। तथागत बुद्ध द्वारा अहिंसा पर जोर दिए जाने से पशुबलि की कुप्रथा कमजोर पड़ी थी। उनसे बचा पशुधन कृषि एवं व्यापार में खपने लगा। शुद्धतावादी मानसिकता के चलते ब्राह्मण समुद्र पार की यात्रा को निषिद्ध और धर्म-विरुद्ध मानते थे। बौद्ध धर्म में ऐसा कोई बंधन न था। इसलिए अंतरराज्यीय व्यापार में तेजी आई थी। चूंकि अधिकांश राजाओं द्वारा अपनाए जाने से बौद्ध धर्म राजधर्म बन चुका था, इसलिए युद्धों में कमी आई थी, जो राजीनितिक स्थिरता बढ़ने का प्रमाण थी। व्यापारिक यात्राएं सुरक्षित हो चली थीं। जिससे व्यापार में जोरदार उछाल आया था।

ये सभी स्थितियां जनसामान्य के लिए भले ही आह्लादकारी हों, मगर ब्राह्मण-धर्म के समर्थकों के लिए अत्यंत अप्रिय और हितों के प्रतिकूल थीं। इसलिए उसका छटपटाना स्वाभाविक ही था। अतएव तथागत बुद्ध को लेकर वे ओछे व्यवहार पर उतर आए थे। बुद्ध का जन्म शाक्यकुल में हुआ था, जो वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुसार क्षत्रियों में गिनी जाती थी। ब्राह्मणों ने उन्हें शूद्र कहकर लांछित किया, जिसको बुद्ध इन बातों से अप्रभावित बने रहे। दर्शन को जनसाधारण की भावनाओं का प्रतिनिधि बनाते हुए उन्होंने दुःख की सत्ता को स्वीकार किया। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि दुःख निवृत्ति संभव है। उसका एक निर्धारित मार्ग है। दुःख स्थायी और ताकतवर नहीं है। बल्कि उसको भी परास्त किया जा सकता है।

बुद्ध का दर्शन वर्जनाओं का दर्शन है। सबसे पहले वह वर्णाश्रम व्यवस्था पर प्रहार करते हैं। उस व्यवस्था पर प्रहार करते हैं, जो ब्राह्मणों को विशेषाधिकार संपन्न बनाती है। पुरोहितवाद की जरूरत को नकारते हुए वे कहते हैं—‘अप्प दीपो भव!’ अपना दीपक आप बनो। तुम्हें किसी बाहरी प्रकाश की आवश्यकता नहीं हैं। किसी मार्गदर्शक की खोज में भटकने से अच्छा है कि अपने विवेक को अपना पथप्रदर्शक चुनो। समस्याओं से निदान का रास्ता मुश्किलों से हल का रास्ता तुम्हारे पास है। सोचो, सोचो और खोज निकालो! इसके लिए मेरे विचार भी यदि तुम्हारे विवेक के आड़े आते हैं, तो उन्हें छोड़ दो। सिर्फ अपने विवेक की सुनो। करो वही जो तुम्हारी बुद्धि को जंचे। उन्होंने पंचशील का सिद्धांत दुनिया को दिया। उसके द्वारा मर्यादित जीवन जीने की सीख दुनिया को दी। कहा कि सिर्फ उतना संजोकर रखो जिसकी तुम्हें जरूरत है। तृष्णा का नकार…हिंसा छोड़, जीवमात्र से प्यार करो। प्रत्येक प्राणी को अपना जीवन जीने का उतना ही अधिकार है, जितना कि तुम्हें है। इसलिए अहिंसक बनो। झूठ भी हिंसा है। इसलिए कि वह सत्य का दमन करती है। झूठ मत बोलो। सिर्फ अपने श्रम पर भरोसा रखो। उसी वस्तु को अपना समझो जिसको तुमने न्यायपूर्ण ढंग से अर्जित किया है। पांचवा शील था, मद्यपान का निषेध। बुद्ध समझते थे वैदिक धर्म के पतन के कारण को, उन कारणों को जिनके कारण वह दलदल में धंसता चला गया। दूसरों को संयम, नियम का उपदेश देनेवाले वैदिक ऋषि खुद पर संयम नहीं रख पा रहे थे। अपने आत्मनियंत्रण को खोते हुए उन्होंने खुद ही नियमों को तोड़ा। मांस खाने का मन हुआ तो यज्ञों के जरिये बलि का विधान किया। कहा कि ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ और अपनी जिव्हा के स्वाद के लिए पशुओं की बलि देते चले गए। नशे की इच्छा हुई तो सोम को देवताओं का प्रसाद कह डाला और गले में गटागट मदिरा उंडेलने लगे। ऐसे में धर्म भला कहां टिकता। कैसे टिकता!

श्री. ओम प्रकाश कश्यप…

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