हमने अक्सर सुना होगा की संत कबीर को मुसलमान मुसलमान मानते हैं और हिन्दू हिन्दू मानते हैं, इस बात पर विवाद रहा है |पर जब हम बहुजन/बौद्ध/मूलनिवासी विचारधारा और कबीर की विचारधारा की तुलना करते हैं तो इस विवाद का सही उत्तर पाते हैं|
संत कबीर ने धर्म और ईश्वर दोनों के पक्ष में भी लिखा है तो विपक्ष में भी लिखा है, ये गौर करने वाली बात है ऐसा क्यों|गुरु कबीर ने उस ज़माने में प्रचलित ईश्वरीय नामों के पक्ष में कुछ साहित्य रचा था, पर लगता है वो साहित्य उनके शुरुआती दिनों का होगा| कोई भी विचारक जब अध्यात्म की खोज शुरू करता है तब वो उस समय की प्रचलित भक्ति में शांति खोजने लगता है, शुरुआत यहीं से होती है|पर जब कहीं भी शांति नहीं मिलती तब अंततः वो सत्य या धम्म को पा ही लेता है| इसीलिए बाद में जब वो जागे होंगे तब उन्होंने जो साहित्य रचा उसे पढ़ने पर हम जान सकते हैं की वो राम और अल्लाह दोनों के विरोध में है अर्थात धर्म और ईश्वरवाद के विरोध में है और मानवता के पक्ष में है|यही कारन हो सकता है की कबीर के साहित्य में धर्म के पक्ष और विपक्ष दोनों के स्वर मिलते हैं |
वास्तव में न हिन्दू थे न मुसलमान, वो तो धर्म मुक्त थे, धर्म को ही मानवता विरोधी मानते थे, उनकी विचारधारा तो बहुजन/बौद्ध/मूलनिवासी विचारधारा थी, उनकी विचारधारा बौद्ध थी पर वो बौद्ध थे ऐसा भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि जब रविदास, कबीरदास जैसे संत मौजूद थे उन सदियों में भारत से बौद्ध विचारधारा और बौद्ध संस्कृति का दमन किया जा चुका था, तो ऐसे में बौद्ध विचारधारा इन तक कैसे पहुचती, पर ये निश्चित है की अगर बौद्ध विचारधारा उपलब्ध होती तो ये संत बौद्ध ही कहलाये गए होते |भक्ति काल से लेकर जब अंग्रेजों ने भारत में खुदाई कर के बौद्ध अवशेषों को निकला नया पांच रंगी झंडा बनाया तब तक सात सौ साल बौद्ध धम्म भारत में सोया रहा था| ऐसे में संत कबीर संत रविदास और उस ज़माने के अन्य संतों तक बुद्ध का सन्देश नहीं पहुंच पाया, पर ये भी तय है की असल बौद्ध विचारधारा और बहुजन संतों की विचारधारा एक ही दिशा में है,मानवतावाद के पक्ष में और धर्म के विरोध में है| जो जानेगा वो महसूस करेगा और वो मानेगा|बहुजन विचारधारा को अगर एक वाकये में कहूँ तो इसका मतलब है जिओ और जीने दो, ईश्वरवाद से भी बड़ा है न्याय, न्याय से बड़ा कुछ भी नहीं ..
असल में ये जिंदगी का नियम है की “बात का मतलब कोई नहीं समझता मतलब की बात सभी समझ लेते हैं|” कबीर के साहित्य में से ऐसा कुछ भी जो हिन्दुओं के हित की बात है वो हिन्दुओं ने चुन ली जो मुस्लिमों के हित की बात है वो मुस्लिमों ने चुन ली और वही बाजार में उपलब्ध है | और जो उनके हित की बात नहीं वो छोड़ दी|जब दोनों पक्षों का कबीर साहित्य जोड़ कर पड़ते हैं तो हम पाते हैं की कबीर न हिन्दू थे न मुस्लमान वो तो मानवतावादी थे| ..
नीचे दिए हुए कबीर के लेखन से हम जान सकते हैं की उनकी विचारधारा राम और अल्लाह दोनों से अलग है|
कबीरा कुआं एक है और पानी भरें अनेक
भांडे ही में भेद है, पानी सबमें एक ।।
भला हुआ मोरी गगरी फूटी,
मैं पनियां भरन से छूटी
मोरे सिर से टली बला… ।।
भला हुआ मोरी माला टूटी,
मैं तो राम भजन से छूटी
मोरे सिर से टली बला… ।।
माला कहे है है काठ की ,कबीरा तू का फेरत मोहे
मन का मनका फेर दे तो तुरत मिला दूँ तोहे
भला हुआ मोरी माला टूटी
मैं तो राम भजन से छूटी
मोरे सिर से टली बला… ।।
माला जपु न कर जपूं और मुख से कहूँ न राम
राम हमारा हमें जपे रे कबीरा हम पायों विश्राम
मोरे सिर से टली बला… ।।
कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाय।
ता चढि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय॥
कबीरा बहरा हुआ खुदाय
हद हद करते सब गए बेहद गयो न कोई
अरे अनहद के मैदान में कबीरा रहा कबीरा सोये
हद हद जपे सो औलिये, बेहद जपे सो पीर
हद(बौंडर) अनहद दोनों जपे सो वाको नाम फ़कीर
कबीरा वाको नाम फ़कीर….
दुनिया कितनी बाबरी जो पत्थर पूजन जाए
घर की जाकी कोई न पूजे कबीरा जका पीसा खाए
चाकी चाकी…..
चलती चाकी देखकर दिया कबीरा रोए
दो पाटन के बीच यार साबुत बचा ना कोए ।।
चाकी चाकी सब कहें और कीली कहे ना कोए
जो कीली से लाग रहे, बाका बाल ना बीका होए ।।
हर मरैं तो हम मरैं, और हमरी मरी बलाए
साचैं उनका बालका कबीरा, मरै ना मारा जाए ।
माटी कहे कुम्हार से तू का रोधत मोए
एक दिन ऐसा आयेगा कि मैं रौंदूगी तोय ।।
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।
अर्थ : कबीर कहते हैं कि हिन्दू राम के भक्त हैं और तुर्क (मुस्लिम) को रहमान प्यारा है. इसी बात पर दोनों लड़-लड़ कर मौत के मुंह में जा पहुंचे, तब भी दोनों में से कोई सच को न जान पाया।
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