- आचार्य चाणक्य कहते हैं कि यदि मनुष्य दया से पृथक है तो उसके मनुष्य होने का अर्थ ही नहीं है। दया एक ऐसा अनमोल या मूल्यवान गुण है, जिससे दया करने वाले और जिस पर दया की जाती है या जो दया का पात्र है, दोनों को लाभ होता है या दोनों ही दया लाभ के पात्र हैं।
- आचार्य चाणक्य का कहना है कि मानव क्या है- वह आत्मा है या देह? सर्वप्रथम यह ज्ञान आवश्यक है। इस ज्ञान के बिना मानव देह धारण करना ठीक उसी प्रकार है, जिस प्रकार से मन्त्रों का अर्थ जाने बिना तोते के समान रूप रट लेना। परन्तु अर्थ का ज्ञान गुरूदेव प्रदान करता है। इस श्लोक का अर्थ यह है कि जो गुरूदेव अपने शिष्य को एकाक्षर 'तत्वमसि' तुम ब्रह्म हो, आत्मा हो, शरीर नहीं, यह सच्चे तत्व ज्ञान का उपदेश देता है, वह अपने शिष्य को मिथ्या मोह-माया से पृथक कर ब्रह्म का साक्षात्कार या दर्शन कराता है। इस जग, जगत, संसार, पृथ्वी में ऐसा कोई मूल्यवान पदार्थ नहीं जिसे गुरूदेव को अर्पण या अर्पित करके शिष्य गुरूदेव के कर्ज या ऋण ले उऋण हो सके। इसके समक्ष जगत के सभी अनमोल पदार्थ तुच्छ हैं, अतः तत्वोपदेष्टा गुरूदेव के प्रति शिष्य को सदैव ही आभारी होना चाहिए।
- दुष्टों और कांटों से छुटकारा या मुक्ति पाने के दो मार्ग हैं- प्रथम जूतों से उनका मुंह तोड़ देना। द्वितीय, दूर से ही उनका परित्याग कर देना चाहिए। व्यक्ति के पास सामर्थ्य या ताकत हो तो दुष्टों को दण्डित या सजा देनी चाहिए और यदि सामर्थ्य न हो तो किनारा कर लेना ही बेहतर है। उनका सामीप्य कदापि वांछनीय नहीं होता।
- मैले-कुचले वस्त्र धारण करने वाले, गंदे मैले दांतों वाला, अधिक खाने पर आमादा रहने वाला, कानों पर हथौड़ा जैसी कर्कश वाणी बोलने वाला, सूर्योदय और सूर्यास्त के उपरान्त शयन मग्न रहने वाला यदि साक्षात विष्णुजी भी हों तो लक्ष्मी उसे अवश्य त्याग देती है, दूसरों के विषय में तो फिर कहना ही क्या! कहने का अभिप्राय यह है कि इस प्रकार के व्यक्तित्व आलसी प्रकृति के होने के कारण दरिद्र या निर्धन होते हैं। दरिद्रता या निर्धनता के निवारण के लिए इन दोषों या अवगुणों - मलिन वस्त्र पहनना, दांतों को अपवित्र रखना, कर्कश वाणी का सदैव उपयोग करना, सूर्योदय या सूर्यास्त के समय सोने में मग्न रहना का परित्याग अपेक्षित है। स्वच्छ या पवित्र वस्त्र धारण करने वाला, दांतों को नीम की दातून से चमकीला बनाए रखने वाला, मिष्ट या मधुर या मृदु वाणी बोलने का अनुसरण करने वाला या कर्णप्रिय वाणी का गान करने वाला तथा सूर्यास्त के समय निद्रामग्न न होकर कर्मरत या कार्यरत या अपने कार्यों में लीन रहने वाला व्यक्ति समृद्धशाली बनता या हो जाता है। जो मनुष्य अपनी देह की शुद्धी व स्वच्छता या पवित्रता की ओर ध्यान नहीं देता, वह उद्यम या कर्म ही क्या करेगा।
- मनुष्य जब कभी भी धन से हीन हो जाता है तो उसके मित्र, सेवक और सम्बन्धी यहां तक कि स्त्री भी उसे त्याग देती है। जब कभी संयोग या भाग्य से वही व्यक्ति फिर धनवान हो जाता है, तो उसे त्यागने वाले वही सम्बन्धी, सेवक यहां तक कि स्त्री भी फिर उसके पास लौट आते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि ध नही मनुष्य का सच्चा बन्धु है, जिसके होने पर जग के सभी प्राणी अनुराग या स्नेह करते हैं। न होने पर आंखें फेर या किनारा कर लेते हैं।
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