क्या “दलित” शब्द के साथ “साहित्य” संभव है?क्या दलित शब्द का इस्तेमाल आंबेडकरवादी विचारधारा के अनुरूप है, क्या स्वयं डा. आंबेडकर इस शब्द के इस्तेमाल के पक्ष में थे|… ईश कुमार गंगानिया - Indian heroes

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Wednesday, 1 March 2017

क्या “दलित” शब्द के साथ “साहित्य” संभव है?क्या दलित शब्द का इस्तेमाल आंबेडकरवादी विचारधारा के अनुरूप है, क्या स्वयं डा. आंबेडकर इस शब्द के इस्तेमाल के पक्ष में थे|… ईश कुमार गंगानिया

क्या “दलित” शब्द के साथ “साहित्य” संभव है?
ईश कुमार गंगानिया यह स्पष्ट कर रहे हैं कि क्या दलित शब्द का इस्तेमाल आंबेडकरवादी विचारधारा के अनुरूप है, क्या स्वयं डा. आंबेडकर इस शब्द के इस्तेमाल के पक्ष में थे
मैं आंबेडकरी वैचारिकी यानी आंबेडकवाद और ‘दलित’ शब्‍द के प्रयोग और ‘दलित’ शब्‍द को केन्‍द्र में रखकर अस्तित्‍व में आए दलित साहित्‍य को लेकर एक अजीब प्रकार के द्वंद्व से गुजर रहा हूं। संभवत: यह द्वंद्व  आंबेडकर और दलित साहित्‍य के अंत: संबंध को समझने में हमारी मदद करें। दरअसल, मुझे ‘दलित’ शब्‍द आंबेडकरवाद या आंबेडकर-वैचारिकी का हिस्‍सा नहीं लगता। मेरी स्‍पष्‍ट मान्‍यता है कि ‘दलित’ शब्‍द किसी भी समाज की गरिमामय अस्मिता कभी नहीं हो सकता। जहां तक मेरा अल्‍प अध्‍ययन का मामला है, बाबा साहब ने ‘दलित’ शब्‍द को अपने समाज की अस्मिता (आईडेटिटी) बनाने का आह्वान कभी नहीं किया।
दलित’ शब्द के प्रयोग का स्वयं बाबा साहब ने तर्कयुक्त आधार पर खंडन किया था, जो उनके सम्पूमर्ण वाड़़्मय संख्या चार के पृष्ठ 228 पर ‘नामकरण’ शीर्षक से कुछ इस प्रकार अंकित है-‘‘जिन जातियों को इस समय ‘दलित वर्ग’ कहा जाता है, उन्हें इस शब्द पर काफी आपत्ति है…यह शब्द  यह धारणा पैदा करता है कि ‘दलित वर्ग’ एक निम्न और असहाय समुदाय है, जबकि वास्तविकता यह है कि हर प्रांत में उनमें अनेक सुसम्पन्न और सुशिक्षित लोग हैं और समूचे समुदाय में अपनी आवश्यकताओं के प्रति चेतना जागृत हो रही है। उसके मानस में भारतीय समाज में सम्मानजनक दर्जा प्राप्त करने की प्रबल लालसा पैदा हो गई है और वह उसे प्राप्ते करने के लिए भागीरथ प्रयास कर रहा है। इन सब कारणों के आधार पर ‘दलित वर्ग’ शब्द अनुपयुक्त और अनुचित है।…दलित वर्गों के प्रतिनिधि के नाते मैं बिना किसी संकोच के कह सकता हूं कि जब तक और बेहतर नाम न मिल जाए तब तक अस्पृश्य वर्ग को अधिक व्यापक शब्द ‘बाह्य जातियों’ या बहिष्कृत जातियों के नाम से पुकारा जाए, न कि दलित वर्गों के नाम से।’’ गौरतलब यह भी है कि कुछ बुद्धिजीवी इसे मूलनिवासी/आंबेडकरवादी समाज जैसी और भी कई नई-नई पहचान दिलाने के लिए संघर्षरत हैं।
आज भी बुद्धिजीवियों का एक बड़ा तबका अपने आपको दलित और अपने द्वारा रचित साहित्‍य को ‘दलित साहित्‍य’ कहे जाने के लिए जिद पर है। इस कड़ी में कांचा इलैया, जो एक बडे चिंतक है, का उल्‍लेख किया जा सकता है-‘‘अब खुद धर्म का इतिहास भी अपने अंत पर पहुंच रहा है। हमारे लिए जरूरी है कि अपने समग्र समाज का दलितीकरण करें। दलितीकरण ही सारे भारतीय समाज में एक नए समतावादी भविष्‍य की स्‍थापना करेंगा।’’ (मैं हिन्‍दू क्‍यों नहीं हूं, पृ. 104) यदि इस टिप्‍पणी पर गंभीरतापूर्वक विचार करें तो समस्‍त समाज का दलितीकरण जरूरी है। प्रश्‍न यह भी है कि समग्र समाज का दलितीकरण कैसे होगा? क्‍या उन्हें (गैर-दलितों का) अन्‍य विभिन्‍न प्रकार की निम्‍न जातियों में बांटा जाएगा? क्‍या उनका आर्थिक, सामाजिक, बौद्धिक व राजनीतिक रूप से दलन किया जाएगा? क्‍या उन पर विभिन्‍न स्‍तर पर निर्योग्‍यताएं थोपी जाएंगी? क्‍या कांचा इलैया का तात्‍पर्य यह है कि ऐसा करने से पूरा समाज समान रूप से दलित हो जाए यानी यही समग्र समाज के दलितीकरण की प्रक्रिया है? क्‍या कांचा इलैया का समता का यही पैमाना होगा? इतनी मगजपच्‍ची करने के बाद भी यह मेरी समझ से बाहर है कि दलितीकरण की प्रक्रिया देखने व अनुभव करने में कैसी होगी और इससे कैसे भारतीय समाज में नए समतावादी भाविष्‍य की स्‍थापना होगी। कांचा इलैया साहब को यह ठीक-ठीक स्‍पष्‍ट करना चाहिए। इस प्रकार की सोच अम्‍बेडकरवादी नहीं, दलितवादी (हीनताबोधी) महसूस होती है।

इस कड़ी में वी टी राजशेखर जैसे प्रखर चिंतक, जो इंग्लिश की पत्रिका ‘दलित वायस’ भी निकालते हैं, का उल्‍लेख किया जा सकता है-‘‘दलित होने, इस प्राचीन धरती के मूलनिवासी होने में गर्व महसूस करो। आओ सिर ऊंचा करके चलें। दलित संस्‍कृति पर गर्व करें। जो काला है वह सुंदर है।’’ (दलित वॉयस, खंड-8, अंक 16, जून 1-15, 1988) मुझे इस देश का मूलनिवासी होने पर तो गर्व है और इसमें सिर ऊंचा करने वाली बात स्‍वाभाविक ही है। लेकिन दलित होने पर कैसे गर्व किया जा सकता है?
यह भी बड़े प्रबल दावे के साथ कहा जाता है कि दलित साहित्‍य आंबेडकरी विचारधारा पर आधारित साहित्‍य है। परिणामस्‍वरूप, बाबा साहब की वैचारिकी के मद्देनजर हिन्‍दूवाद का विरोध जमकर हो रहा है। बौद्ध धम्‍म को समाज का धर्म बनाने की काफी जद्दोजहद हो रही है। जातिविहीन व समतमामूलक समाज की बात भी खूब होती है। नारी अस्मिता और सशक्तिकरण भी मुख्‍यधारा की लड़ाई के रूप में प्रमुखता के साथ मौजूद है। कविताओं, कहानियों, उपन्‍यासों व आत्‍मकथाओं में शोषण-उत्‍पीड़न के हथकंडों पर खूब बात हो रही है यानी शोषक और शोषित की तस्‍वीर इस साहित्‍य के माध्‍यम से बिल्‍कुल स्‍पष्‍ट हो रही है। इस साहित्‍य में आक्रोश इतना बढ़ गया है कि कुछ लोग आक्रोश को इस साहित्‍य की प्रमुख प्रवृत्ति व साहित्‍य के सौंदर्य के रूप में आनिवार्यता प्रदान करने में बढ़ चढ़कर हिस्‍सा लेते हैं। गौरतलब है कि आक्रोश में विवेक नहीं रहता और इसमें रचनात्‍मकता का भी ह्रास होता है। इसलिए मुझे लगता है कि आक्रोश की अपेक्षा हमें अपने तर्क गंभीरता व जिम्‍मेदारी से रखने चाहिए। मैं यह भी मानता हूं कि ‘दलित’ शब्‍द और इससे जुड़े साहित्‍य के लिए ‘दलित साहित्‍य’ के पैरोकारों की कमी नहीं है। लेकिन फिर भी मेरी दृष्टि में यह आधा सच है, पूरा नहीं।
मैं यह मानकर चलता हूं कि आजकल दलन/अत्‍याचार उन पर अधिक होते हैं जो दलितपन के दायरे से बाहर निकलने या इससे बाहर झांकने की कोशिश करते हैं। जिन्‍होंने दलन का आत्‍मसात कर लिया हो उसके लिए दलन व शोषण और उत्पीड़न  का कोई खास अर्थ ही नहीं रह जाता। न वह इसका प्रतिकार ही करता है और न ही इससे पीडि़त ही महसूस करता है। साफ है कि वह इसे नियति मानकर चलता है। मुझे दलित साहित्‍य के पैरोकारों का अपने आपको ‘दलित’ की परिधि में कैद रखना यानी अपनी वास्‍तविक व गरिमामय अस्मिता की तलाश के प्रति निष्‍क्रिय/उदासीन जैसे बने रहना अपनी मौजूदा स्थिति से आत्‍मसात करने जैसा ही लगता है।
आंबेडकरवाद की कसौटी पर प्रो. तुलसीराम की आत्‍मकथा ‘मुर्दहिया’ को देखें तो इसमें आक्रोश है, एक प्रकार से पूरे सिस्‍टम से बगावत है और इस बगावत के केन्‍द्र में स्‍वयं व्‍यक्ति है। इससे जो हासिल होने वाला है वह स्‍वयं के लिए है, किसी और के लिए नहीं। प्रो. तुलसीराम द्वारा सारे भूत-प्रेत और अंधविश्‍वासी परंपरओं को तोड़ना आंबेडकरवादी/आंबेडकवाद की विचारधारा के पुख्‍ता प्रमाण है़। पढाई के लिए घर-परिवार वालों से चोरी से कस्‍बे में भाग जाना। ये तरीके ऐसे आक्रोश के हैं जो स्‍वयं के आगे बढ़ने लिए जरूरी हैं, दूसरों की टांग खींचने वाले नहीं। बाबा साहब का पूरा जीवन ऐसे ही कारनामों से भरा पड़ा है। अपनी बड़ी लाईन खींचकर आगे बढ़ना ही बाबा साहब ही लाईन है। यही समाज में व्‍यक्ति को स्‍वीकार्य व आदरणीय बनाती है। ऐसे दर्शन के दम पर ही तो बाबा साहब आज दुनिया के 100 श्रेष्‍ठतम बुद्धिमानों की श्रेणी में सम्‍मानजनक पोजिशन में मौजूद हैं। आज जरूरत भी इसी की है। आंबेडकरवादी ऐसी ही सोच ने बेहद मामूली, अभावग्रस्‍त और असीम समस्‍याओं से ग्रस्‍त बालक को जेएनयू का प्रो. तुलसीराम बना दिया।

इसके विपरीत हमारे प्रखर विद्वान डा. धर्मवीर जी हैं, जो अपने आपको डा. आंबेडकर का बालक बताते हैं। उन्होंने  आईएएस जैसे बड़े पद को सुशोभित किया और कुछ समय पहले तक बहुत ही उम्‍दा, गंभीर व काबिल-ए-तारीफ लेखन भी किया। लेकिन आजकल डा. धर्मवीर तथागत बुद्ध और डा. आंबेडकर के चिंतन-दर्शन की जड़ों में मट्ठा डालकर अपने आधे-अधूरे आजीवक दर्शन की बुनियाद रखने की कोशिश में हैं। उनकी अपनी विद्वत मंडली तथाकथित उनकी आत्‍मकथा ‘मेरी पत्‍नी और भेडि़या’, उनके जार चिंतन और कबीर को आजीवक दर्शन की बैसाखी बनाने पर तुले हैं। ये कभी ‘आजीवक’ को दलित धर्म और कभी किसी अन्‍य ‘दलित धर्म की खोज’ की बात करते है। डा. धर्मवीर के इस उपक्रम की तुलना हिन्‍दूवाद के कट्टरवादी उस आन्‍दोलन से की जा सकती है जिसमें वे ‘हिन्‍दू’ को कभी धर्म कहते है, कभी सिंधु घाटी से उपजा बताते हैं, कभी इसे हिन्‍दी से जोड़ते हैं, कभी इसे हिन्‍दुत्‍व कहते हैं, कभी हिन्‍दू राष्‍ट्रवाद कहते हैं, कभी जीवनशैली कहते हैं और न जाने क्‍या-क्‍या कहते हैं लेकिन अंतत: वही ढाक के तीन पात।
यह सिक्‍के का एक पहलू हैं। आंबेडकरवादी साहित्‍य में हम शोषण-उत्‍पीड़न के विभिन्न पक्षों की बात करते हैं और इसके लिए जिम्‍मेदार लोगों को अपनी वैचारिक स्‍वतंत्रता के अधिकार की बदौलत स्‍वाभाविक रूप से कठघरे में खड़ा करते हैं। ले‍किन अनेक मामलों में हम दूसरों को कठघरे में खड़ा करते समय खुद ही दलितपन के शिकार नजर आते हैं। आंबेडकरवादी कवि ब्राह्मणवादी संस्कृति को कभी ‘परायी-संस्कृति’ या ‘मुर्दा-संस्कृति’ कहता है तो कभी उसे ‘रखैल-संस्कृति’ या ‘कुत्ता-संस्कृति’ के रूप में चिहिंत करता है। क़ुछ ऐसे कवि भी हैं जो कोढ़ी संस्‍कृति यानी हिन्‍दूवादी अपसंस्‍कृति को सिरे से खारिज करते हुए कहते हैं कि इसे तुम्‍हीं संभालों। यह कोढ़ी व अग्राह्या संस्‍कृति के नकार की सूझबूझ व शक्तिऐसे कवियों को बुद्ध व बाबा साहब के दर्शन व उनकी 22 प्रतिज्ञओं की बदौलत मिलती है। इसमें सम्‍यक निर्णय दलितवाद का नहीं बल्कि अम्‍बेडकरवाद का लक्षण है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो कहानियों, कविताओं व उपन्‍यासों से दिए जा सकते हैं।
इस कड़ी में यह चर्चा करना भी जरूरी महसूस हो रहा कि जो कुछ भी दलित समाज के व्‍यक्ति के द्वारा लिखा जाता है, क्‍या उसे दलित साहित्‍य या आंबेडकर वैचारिकी का हिस्‍सा मान लिया जाना चाहिए। वैसे यह दावा अक्‍सर दलित साहित्‍यकारों द्वारा किया जाता रहा है कि दलित साहित्‍य केवल दलित ही लिख सकता है। मैं इन दोनों स्थितियों से असहमति व्‍यक्‍त करने को विवश हूं। डा. विजय सोनकर शास्‍त्री का ऐपीसोड मुझे आंबेडकरवादी विचारधारा पर आधारित साहित्‍य कतई नहीं लगता। नीचे वर्णित ऐपीसोड के आधार पर देखें तो डा. शास्‍त्री का दलित समाज से संबंधित होना उसके साहित्‍य को दलित साहित्‍य व अम्‍बेडकरी वैचारिक पर खरा उतरने में मदद नहीं करता।
आंबेडकर वैचारिकी यानी आंबेडकरवाद को समझने के लिए समाज में व्‍याप्‍त निजद्वैतवाद (फिसीपैरस) यानी वैचारिक दोगलापन की प्रवृत्ति को समझना पड़ेगा। इसको समझने के लिए हमको विजय सोनकर शास्‍त्री की दलितों के प्रति भूमिका को भी समझना होगा। गौरतलब है कि डा. विजय सोनकर शास्‍त्री वर्तमान में भाजपा सांसद ही नहीं हैं अपितु एस सी/एस टी कमीशन के चेयरमैन भी रह चुके हैं। मूल बात यह है कि ये भाजपा की ओर से दलितों के प्रतिनिधि हैं। ये लगभग पांच वर्षों से ‘दलित आन्‍दोल पत्रिका’ भी निकाल रहे रहे हैं जिसमें बाबा साहब का बड़ा-बड़ा फोटो भी अक्‍सर होता है।
वे 07.09.2014 को एनडीएमसी कन्‍वैंशन सेंटर में अपनी तीन पुस्‍तकों “हिन्‍दू खटीक जाति”, “हिन्‍दू चर्मकार जाति” और “हिन्‍दू वाल्‍मीकि जाति” का लोकार्पण आरएसएस चीफ माननीय भागवत जी से कराते हैं और स्‍टेटमैंट देते हैं-‘‘हिन्‍दू उपजातियों की संख्‍या हजारों में कैसे पहुंच गई, यह अपने आप में शोध का विषय है। आज की अछूत जातियां पूर्व कट्टर और बहादुर जातियां थीं। विदेशी आक्रांताओं के अत्‍याचारों को सहते हुए उन्‍होंने अपना धर्म परिवर्तन नहीं किया, बल्कि मैला ढोने जैसे कर्म को स्‍वीकार किया। तब उनसे ज्‍यादा कट्टर हिन्‍दू कौन हो सकता है?’’

वैसे अब प्रमाणों की कमी नहीं है जो पुख्‍ता करते हैं कि आज का वर्चस्‍ववादी व वर्णवादी समाज ही है, जिसने अतीत में आर्य के रूप में इस देश के मूलनिवासियों को मैला ढोने, मवेशियों का चमड़ा उतारने और घृणित से घृणित कार्य को स्‍वीकार करने के अतिरिक्‍त समाज में रहने का अन्‍य कोई विकल्‍प ही नहीं छोड़ा। आरएसएस चीफ का यहां अछूतों के अन्‍य घृणित पेशों की बात न करके सिर्फ मैला ढोने की बात करना मुझे लगता है कि यह वाल्मिकियों को जैसे तथाकथित दलित खैमें से अलग करना है। दूसरे, वे वाल्मीकि जाति के संबंध में यह टिप्‍पणी करके कि ‘वे वीर-बहादुर जाति रहें हैं और विदेशी आक्रांता यानी मुसलमानों ने उन्‍हें इस घृणित कार्य में झोंका है’ के माध्‍यम से एक तीर से कई शिकार करते नजर आते हैं। ऐसा कहकर एक ओर वे यह संदेश दे रहे हैं कि दलित व अछूतों में वाल्‍मीकि ही ‘वीर-बहादुर’ जाति हैं और संभवत: अन्‍य दलित व अछूत ‘वीर-बहादुर’ नहीं हैं। दूसरी ओर वे यह संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं कि इस मैला प्रथा की दलदल में झोंकने का काम मुस्‍लमानों ने किया है, हिन्‍दुओं की इसमें कोई भूमिका नहीं है। तीसरे, इस वक्‍तव्‍य का एक अर्थ यह भी निकलता है कि वाल्‍मीकियों को कट्टर हिन्‍दू होने का ही एहसास नहीं कराया जा रहा बल्कि उन्‍हें भावी साम्‍प्रदायिक दंगों/टकराव की स्थिति निपटने के लिए उनकी भूमिका भी तैयार की जा रही है। यह अलग बात है कि डा. विजय सोनकर ‘हिन्‍दू खटीक जाति’, ‘हिन्दू  चर्मकार जाति’ और ‘हिन्‍दू वाल्‍मीकि जाति’ नामक पुस्‍तक लिखकर तीनों जातियों को कट्टर हिन्‍दू घोषित करने की मुहिम चला रहे हैं। लेकिन आरएसएस चीफ की उपरोक्‍त टिप्‍पणी सिर्फ मैला ढोने वालों को ही वीर-बहादुर और कट्टर हिन्‍दू कहा है।
संभवत: आरएसएस चीफ‍ यह संदेश देना चाह रहे हैं कि धर्मांतरण कभी नहीं करना चाहिए चाहे उसके लिए कितनी भी बड़ी कीमत क्‍यों न चुकानी पड़े। इसका सीधा-सा मतलब यह हुआ कि चाहे कितने भी निम्‍न स्‍तर के कार्य अछूत कर रहे हैं और कितनी भी जिल्‍लत व शोषण-उत्‍पीडन वे झेल रहे हैं, उन्‍हें अपने हिन्‍दू धर्म की रक्षा की खातिर इसका आत्‍मसात कर लेना चाहिए। दूसरे, डा. अम्‍बेडकर की तरह बुद्ध धम्‍म के अंगीकार (धर्मांतरण) का हिस्‍सा उन्‍हें नहीं बनना चाहिए। यही अप्रत्‍यक्ष संदेश आरएसएस चीफ ईसाई व इस्‍लाम में धर्मांतरण के संबंध में अछूतों को देते नजर आते हैं। यदि इस हिन्‍दू कट्टरवाद की मुहिम को अम्बेडकरवाद के विरुद्ध  देखा जाए तो अनुचित नहीं होना चाहिए। निस्‍संदेह आरएसएस चीफ की एक तीर से कई निशाने साधने की यह अदा काबिल-ए-तारीफ है और डा. विजय सोनकर साहब का इस मुहिम का हिस्‍सा होना भी आज के इस अवसरवादी युग की बड़ी देन कहा जाना चाहिए।
कार्यक्रम के अंत में सर-संघचालक कहते हैं-‘‘हम आरक्षण का समर्थन करते हैं। जब तक समाज में असमानता रहेगी, आरक्षण जरूरी है। समाज में उच्च स्थान पाना दलित जातियों का हक है और उच्च जातियाँ ऐसा करती हैं तो कोई अहसान नहीं करेंगी। उन्होंने कहा कि दलितों ने एक हजार साल तक कष्ट सहा है। उनकी स्थिति ठीक करने के लिये हमें सौ साल तक मुश्किल झेलने के लिये तैयार रहना चाहिये।’’ यह स्‍टेटमैंट स्‍टेज से गूंजा नहीं कि टी वी व समाचार पत्रों की सुर्खिया बन गया कि आरएसएस चीफ ने आरक्षण को जायज ठहराया है, इसका समर्थन किया। सभी दलित और गैर-दलित हल्‍कों में भी यह चर्चा का विषय बना। अच्‍छा है चर्चा होनी चाहिए। मैं भी इस पर चर्चा करना जरूरी समझ रहा हूं। इसलिए यहां चर्चा कर रहा हूं कि आरएसएस चीफ के इस स्‍टेटमैंट में भी मुझे निजद्वैतवाद नजर आ रहा है यानी कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना जैसा कुछ है। लेकिन इस स्‍टेटमेंट का अगला हिस्‍सा-‘दलितों ने एक हजार साल तक कष्ट सहा है। उनकी स्थिति ठीक करने के लिये हमें सौ साल तक मुश्किल झेलने के लिये तैयार रहना चाहिये।’, चीफ के स्‍टेटमैंट का यह उत्तरार्ध इस स्‍टेटमैंट के पूर्वार्ध को भी संदिग्‍ध बना देता है। बाद वाले इस स्‍टेटमैंट में आरएसएस चीफ द्वारा अछूतों के 3500 वर्षों से भी अधिक के शोषण-उत्‍पीड़न को घटाकर 1000 तक सीमित करना तर्कयुक्‍त नहीं है। वे 1000 वर्ष के शोषण-उत्‍पीड़न की पूर्ति 100 वर्ष के आरक्षण से करना चाहते हैं।
आरएसएस चीफ भी यही घालमेल करते नजर रहे हैं। आरएसएस चीफ के हिडन ऐजेंडे के अनुसार यदि हम आरक्षण की समय सीमा तय करें तो यह सिर्फ 20 वर्ष ही बचती है। क्‍योंकि 1935 से शुरु 100 वर्ष 2035 में पूरे होते हैं। चूंकि अब 2016 की शुरुआत है यानी आरएसएस चीफ हमारे लिए आरक्षण सिर्फ 19 वर्ष तक देने की बात कर रहे हैं। वैसे न तो आरएसएस चीफ यह तय करने की कोई ऑर्थोटी हैं और न ही हम, इसलिए इस विषय पर हमारे लिए किसी मोल-भाव का कोई प्रश्‍न ही नहीं उठता। लेकिन यहां मामला नीयत का है और इरादे का भी। मुझे दोनों ही संदिग्‍ध नजर आते हैं।
आंबेडकर वैचारिकी और दलित साहित्‍य के अंत:संबंध की परख करते हुए मुझे पुन: ‘दलित’ शब्‍द पर लौटना प्रासांगिक महसूस हो रहा है ताकि आम्‍बेडकर वैचारिकी के तहत इसकी परख हो सके। ‘दलित’ शब्द एक विशेषण है, कोई संज्ञा नहीं है और इस हकीकत से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि जीवन के हर स्तर पर हो रहे शोषण-उत्पीड़न के चलते ही इस देश के मूल-निवासियों को सैंकड़ों अपमानजनक जातियों के साथ-साथ अस्पृश्य, अछूत, अंत्यज, चांडाल जैसी विभिन्न संज्ञाओं से गुजरना पड़ा है। ‘दलित’ शब्द भी इसी श्रेणी में आता है। यह सब हम पर थोपा हुआ है, जो किसी भी विवेकशील समाज के लिए अस्मिता का परिचायक नहीं हो सकता। आम्‍बेडकर वैचारिकी इस बात पर फोकस करने को विवश करती है कि हम उस इंसानी अस्मिता की तलाश करें जहां से मौजूदा स्थिति में पहुंचाने वाले षडयंत्रों, हिंसक नरसंहारों और निरंतर चले आ रहे शोषण-उत्पीड़न की शुरुआत होती है। मौजूदा अध्ययन के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि तथाकथित दलित इस देश के मूलनिवासी हैं और ये लोकायत/चार्वाक संस्कृति के संवाहक यानी आजीवक हैं जो अपनी आजीविका मेहनत से कमाते हैं अर्थात श्रमजीवी हैं, शांति-प्रिय हैं और उच्च नैतिक मूल्यों का अनुपालन इनकी प्रमुख ऐतिहासिक चारित्रिक विशेषता है। जो विद्वान ‘दलित’ शब्द को अस्मिता के रूप में अंगीकार करने के लिए बाजिद हैं, मुझे लगता है कि वे अपनी मूल अस्मिता की तलाश के लिए मशक्कत से बचते हैं और धारा के विरुद्ध तैरने का साहस नहीं रखते। यह कहना अतिश्‍योक्ति नहीं होगा कि डा. आंबेडकर की वैचारिकी यानी अम्‍बेडकरवाद का संबंध केवल साहित्‍य तक सीमित नहीं बल्कि समाज, राष्‍ट्र व पूरी मानवता के साथ इसका घनिष्‍ठ अंत:संबंध है।


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