” क्रांतिकारी रैदास ”…. एड्वोकेट कुशालचन्द्र - Indian heroes

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Wednesday, 1 March 2017

” क्रांतिकारी रैदास ”…. एड्वोकेट कुशालचन्द्र



किसी ने कहा है की जिस कौम का इतिहास नही होता, उस कौम का कोई भविष्य नही होता, आज बहुजन (बहुजन (बहुजन (दलित))) समाज की बात करे तो भगवान बुद्ध के बाद बहुजन (बहुजन (दलित)) आंदोलन के अग्रदूत गुरू रविदास हुए है ।

गुरू रविदास का जन्म माघ सुदी 15 विक्रम संवत् 1460 मे मंडुआ डीह नामक एक गाँव मे रघुराम जी के घर हुआ इनकी माता का नाम करमा देवी था, उनका विवाह लोना देवी से साथ हुआ ।

रैदासजी प्रारम्भ से ही क्रांतिकारी विचारधारा के थे उन्होने ब्राह्मणों के चारों वेदो का खण्डन किया तथा उन्हे व्यर्थ कि किताबें बताया साथ ही गुरू कबीर ने इन्ही वेदो को अधर्म के वेद बताया । उन्होने ब्राह्मण धर्म के सभी रीति-रिवाजों यज्ञ, श्राद्ध, मंदिरों मे पूजा पाठ, आदि हर ब्राह्मणी कर्मकाण्‍ड का तर्क के साथ खण्डन किया । उन्होने बहुजन (बहुजन (दलित)) समाज को चेताया की केवल बहुजन (बहुजन (दलित)) समाज के लोग ही असल मे भारत के शासक रहे है, सिन्धु सभ्यता अर्थात् बहुजन (बहुजन (दलित)) सभ्यता से लेकर मोर्य काल तक भारत पर केवल और केवल बहुजन (बहुजन (दलित))ों का शासन ही रहा है ।

उन्होने बहुजन (बहुजन (दलित))ो को शिक्षा देना शुरू किया तथा उन्होने उप अक्षरों की गुरूमुखी लिपी बनाई तथा उसी लिपि मे अपनी बाणी की रचना की । रैदास की बाणियो से ही ऐसा आभास होता है कि रैदास ने ऐसे राज्य की स्थापना करना चाही जहा ऊचँ-नीच, शोषण आदि का कोई नाम नही हो ।

गुरू रैदास ने उस जमाने मे विधवा मीरा को दीक्षा दी, जब भारत भर मे खासकर राजस्थान मे विधवा को पति की लाश के साथ जिन्दा जला दिया जाता था, इस सामाजिक कुरीति को ब्राह्मण धर्म का पूरा समर्थन हासिल था, तथा उस समय विधवा हो जाना सबसे बड़ा गुनाह था, चाहे इसमे पत्नि का कोई दोष नही हो ।

गुरू रैदास ने उन अटकलो को भी खारिज किया, जिसमे उनके राम को दशरथ पुत्र राम कहा गया, उन्होने स्पष्ट रूप से कहा कि उनके राम वह राम नही है, जो दशरथ का पुत्र है । उनका राम तो उनकी अन्तर आत्मा है ।

गुरू रैदास के वास्तव मे कोई गुरू नही थे, क्योकि किसी बहुजन (बहुजन (दलित)) को आज तक, इस भारत मे किसी ने अपना शिष्य नही माना, न ही शिक्षा दी, उन्हे हमेशा गुलाम बनाये रखने के लिए शिक्षा से दुर रखा, इतिहास गवाह है कि लगभग किसी भी बहुजन (बहुजन (दलित)) संत का कोई गुरू नही रहा ।

वाल्मिकी से लेकर डॉ. अम्बेडकर तक किसी भी बहुजन (बहुजन (दलित)) संत ने गुरू धारण नही किया । शरीरधारी गुरू धारण करने कि परम्परा मात्र ब्राह्मणो मे थी, जिस प्रकार भगवान बुद्ध ने किसी को गुरू नही बनाया, उसी प्रकार बहुजन (बहुजन (दलित)) संतो ने भी किसी को गुरू नही बनाया ।
गुरू रैदास की वाणी मे बोद्ध धर्म का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है । उनकी बाणी मे हिन्दू धर्म या उससे सम्बन्धित किसी भी वेदों का उपयोग नही मिलता है । उन्होने स्पष्ट कहा की किसी भी जाति या वर्ण विशेष मे जन्म लेने से कोई छोटा या बड़ा नही हो जाता है और उन्होने मंदिरों, अवतारो, त्रिमूर्ति, सभी को झूठ और धोखा बताया ।

गुरू रैदास कहते है कि ”बिन देखे उपजे नही आशा, जो देखू सो होय विनाशा ” अर्थात जो दिखाई नही देता उसके प्रति भावना पैदा नही होती तथा जो दिखाई देता है वह नश्वर है, उसका अन्त होना निश्चित है, गुरू रैदास का यह श्लोक उन्हे भगवान बुद्ध के नजदीक ला देता है ।

भगवान बुद्ध ने भी सृष्टिकर्ता ईश्वर के अस्तित्व से इंकार किया । गुरू रैदास के समकालीन तथा सहमित्र रहे गुरू कबीर कुछ ज्यादा ही मुखर शब्दों मे बोले कि ” अगर ईष्ट देव का नाम जपने से ही कुल फल मिलता हो तो रोटी-रोटी करने से पेट भर जाना चाहिये ।” उन्होने कहा कि केवल शुभ काम करने से ही भला होगा ।

गुरू कबीर ने ब्राह्मणवादी व्यवस्था को चुनोती देते हुए कुछ ज्यादा ही स्पष्ट कहा कि ‘‘जो तू बामण बामणी जाया, तो आण बाट क्यों नही आया’’ अर्थात् तू अगर बामणी के पैदा होने के कारण ही ब्राह्मण होने का दावा करता है तो तुझे आम आदमी की तरह माँ के गर्भ से पैदा नही होना चाहिये या बल्कि किसी अन्य रास्ते से पैदा होना चाहिये था ।

गुरू रैदास और गुरू कबीर ने साथ मिलकर ब्राह्मणवादी सता के विरूद्ध आंदोलन चलाया और उनकी प्रखर आलोचना की, और बहुजन (बहुजन (दलित)) लोगों मे चेतना जागृत करने का कार्य किया ।

गुरूनानक भी गुरू रैदास के समकालीन थे, वे गुरू रैदास से मिले भी थे तथा उनकी वाणी को साथ लेकर भी गये, वे गुरू रैदास से इतने अधिक प्रभावित थे, कि वे उनकी वाणी को स्‍वयं गाते भी थे । दशम् गुरू गोबिन्द सिंह ने अपने कार्यकाल मे समस्त भारत के सन्तों की वाणी को ‘‘गुरू ग्रन्थ साहिबा’’ मे संकलन किया । जिसमे गुरू रैदास के 41 पद को शामिल किया गया ।

यह आम मान्यता है कि गुरू रैदास 100 वर्षो से भी ज्यादा जीए । अतः प्रश्न यह उठता है कि उन्होने सम्पूर्ण जीवनकाल में क्या मात्र 41 पद ही रच पायें । यह बात पूर्णत अविश्वसनीय लगता है कि, ऐसा माना जाता है कि गुरू नानक जब गुरू रैदास से मिले तब वे 41 पद को उनकी हत्या से पूर्व ही अपने साथ ले गये जिसका संकलन लगभग 150 वर्षो बाद ‘‘ गुरू ग्रन्थ साहिबा ’’ मे किया गया ।

प्रश्‍न यह उठता है कि शेष बाणियाँ कहा गई । माननीय चन्द्रिका प्रसाद का मानना है की गुरू रैदास की हत्या करके उनकी चिता मे उनकी समस्त बाणीया उनके शरीर के साथ आग की भेंट चढा दी गई । अगर उनकी हत्या नही की गई होती तो उनकी बाणीया अवश्य मिलती ।

प्रश्‍न यह भी है की यह नीच काम किसने किया, सीधा सा उत्तर है ऐसा काम उन्ही लोगों ने किया जिन्होंने उनके शरीर से ’’जनेऊ‘‘ निकाले थे । यह ब्राह्मणो व सामंतो ने बड़ी चतुराई से मिलकर एक षडयन्त्र के तहत जनेऊ दिखाने के बहाने उनके शरीर को राणा विक्रम सिंह चितोड़गढ़ के भरे दरबार मे गुरू रैदास का सीना चीर कर उनकी जीवन लीला समाप्त कर दी और उनके पार्थिव शरीर को मेघवालों कि बस्ती मे भिजवा दिया गया, और यह कहलवा कर कि तुम्हारे गुरू ने भीतर का जनेऊ दिखाकर सभी को चकित कर दिया और स्वेच्छा से शरीर छोड़ दिया है । उनकी हत्या की खबर सुनते ही उनकी धर्मपत्नी लोना जी सदमे को बर्दाश्त न कर सकी और यह समाचार सुनते ही उनका देहान्त हो गया ।

गुरू रैदास की हत्या के बारे मे लेखक सतनाम सिंह ने अपनी पुस्तक मे प्रमाणिक दस्तावेजो के साथ उल्लेख करते हुए कुछ महत्वपूर्ण कारण बताये है जिसमे गुरू रैदास द्वारा ब्राह्मणवादी व्यवस्था को चुनोती देना, मीरा को दीक्षा देना, वेदो का खण्डन करना, बहुजन (बहुजन (दलित))ो मे राजनैतिक चेतना जाग्रत करना, राजमहल मे ब्राह्मणो के वर्चस्व को चुनोती देना आदि प्रमुख कारण रहे थे । साथ ही लेखक सतनाम सिंह ने गुरू रैदास की हत्या के घटनाक्रम का विस्तार से वर्णन किया है ।

वर्तमान समय मे गुरू रैदास के विचारो को अमली जामा पहनाने का कार्य करने वाले आधुनिक भारत के पितामाह डॉ. अम्बेडकर ने किया, जिसकी झलक आज के इस आधुनिक भारत के संविधान मे साफ दिखाई देता है ।

लेखक

कुशाल चौहान, एडवोकेट

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