- आचार्य चाणक्य ने कहा है कि किसी वंश में कोई अवगुण नहीं है? रोग किसे पीड़ा नहीं पहुंचाता? व्यसन किसमें विद्यमान नहीं रहता है? सदैव सुखों का रसपान किसने किया है?
- ( व्याख्या - व्यक्ति गुण, स्वास्थ्य, व्यसनग्रस्तता और सुखों का रसपान करने को तत्पर रहता है। अपने घरवालों को इस ओर अग्रसर करता है, किन्तु जरा-सी असावधानी होने पर किसी के प्रति भी निदा, प्रतिष्ठा, उपेक्षा का रूप अपना लेता है। आचार्य चाणक्य ने कहा है कि जगत् में ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं, देवता और उनके अवतार तक नहीं कि जिनमें अवगुण ना हों। प्रत्येक मनुष्य में कोई न कोई दोष अवश्य ही विद्यमान होता है। जो कभी अस्वस्थ ना हुए हों, जिनमें कोई व्यसन ना हो और जो सदैव सुखों के सागर में लीन रहे हों, ऐसे मनुष्य इस जगत् में कहां हैं? ऐसे मनुष्य दिया लेकर भी नहीं मिल सकते तो फिर ऐसे व्यकितयों के प्रति घृणा की धारणा क्यों? जरा अपने हृदय में झांककर देखिए, क्या आप वही तो नहीं जो अपने आपका प्रदर्शन करते हैं। )
- पुत्री को अच्छे वंश, पुत्र का अध्ययन एवं दुश्मन को व्यसन एवं मित्र को धर्म में प्रवृत होना चाहिए।
- सर्प एवं दुर्जन में चुनाव करना है तो सर्प को ही चुने और सर्वथा दुर्जन से बचे, सर्प तो सिर्फ एक बार दंश देता है, मगर दुर्जन व्यक्ति तो पग-पग पर सदैव ही दंश देता रहता है। जिसका दंश पानी भी नहीं मांगता है।
- राजागण अपने समक्ष वंशज व्यक्तित्व का संगठन इसलिए निर्मित करते हैं कि वे उन्नति, अवनति, उत्कर्ष व विपत्तिकाल, जय-पराजय की स्थिति में राजा को कदापि न छोड़ें।
- ( व्याख्या - आचार्य चाणक्य ने कहा है कि राजा लोग और राजपुरूष श्रेष्टतम एवं विशिष्ट राजकीय सम्बन्धित सेवाओं में भर्ती को प्राथमिकता का आधार मानते हैं, क्योंकि सर्वोच्च संस्कारों तथा परम्परागत शिक्षा या विद्या अध्ययन के कारण राजा की संगत कभी नहीं त्यागते। वे उसकी उन्नति और अवनति के समयचक्र में भी उसका साथ निभाते हैं। वे हर परिस्थिति में एक समान सेवाभाव से अपने स्वामी के भक्त बनकर सदैव संगति नहीं छोड़ते और न ही धोखेबाज और चापलूस होते हैं। जहां अन्य व्यक्ति राजा के समक्ष उन्नति के लिए आगे-पीछे विचरण कर समय आने पर परछाई के रूप में भी दिखाई नहीं देते, वहां उच्च वंशज वालों का आचरण एक जैसा होता है। अतः राजा या नेतागणों को चाहिए कि ऐसे पुरूषों की नियुक्ति में सदैव नीच या ओछे लोगों को प्रविष्ट न करें। )
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