चाणक्य नीति (अध्याय-2) - Indian heroes

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Thursday 23 November 2017

चाणक्य नीति (अध्याय-2)




  • आचार्य चाणक्य ने कहा है कि स्त्रियां अपने मूल-स्वभाव से सदैव असत्य बोलने वाली, अत्यन्त साहसी, छल-कपट में रत, धूर्तता पूर्ण व्यर्थ बातें करने वाली, अत्यन्त लोभी प्रकृति, गंदी और दया की माया से पृथक होती हैं, यह संसार में विख्यात है।
  • ( व्याख्या - स्त्रिायां मूलतः अपने स्वभाव से असत्य वाक्य       बोलने वाली, अत्यधिक साहस धारण करने वाली,धोखे में       रखने वाली, धूर्ततापूर्ण वार्तालाप में रत रहने वाली,     लालच पूर्ण प्रकृति, फिसलू, अशुद्ध और दया की माया से     अलग होती हैं अर्थात् नारियों में अपने वंशजों से ही या जन्म से ही झूठ बोलने की प्रवृत्तियां पायी जाती हैं, अपने दुःसाहस से मूल कारण से वे कोई भी ऐसा कार्य कर सकने में सक्षम हैं, जिस पर एकाएक यकीन नहीं किया जा सकता है। उनके रूप, माया जाल तथा छल-कपटी प्रकृति के विषय में जग में सभी कुछ उजागर है, वे मूर्ख, लोभी, गंदी तथा निर्दयी भी होती हैं, ऐसी स्त्रियों के स्त्री कारकतत्व को आंखें बंदकर सहर्ष स्वीकार कर लेना किसी भी व्यक्ति के लिए कोई अक्लमंदी नहीं है। )

  •  खाने योग्य पदार्थ का सुलभ और सामर्थ्यवान होना भोग-विलास की ताकत के साथ-साथ उसकी पूर्ण तृप्ति हेतु रूपवती स्त्री का प्राप्त होना और धन-संपत्ति के भी होने पर उसके उपभोग करने के संग-संग दान की प्रवृत्ति का भी होना इस बात का द्योतक है कि पूर्व जन्म के संयोग के मूल कारण से ही या मनुष्य के पूर्व जन्म के तप ऐसे फल की प्राप्ति होती है।
  • ( व्याख्या - व्यक्ति के जीवन में अनुभव से देखने पर ज्ञान द्वारा पाया है कि व्यक्तियों के पास खाने-पीने के योग्य पदार्थों की कहीं कोई कमी नहीं, उनके पास खा-पीकर पाचन शक्ति नहीं होती, आप इस बात को इस प्रकार भी व्यक्त कर सकते हैं, जिसके पास चने के दाने हैं, पर दांत नहीं और जिसके पास दांत है, उसके पास चने के दाने नहीं अर्थात आनन्दमय होने के लिए दांत और चने दोनों महत्वपूर्ण हैं, सामान्य से अर्थों में बलशाली धनवान् व्यक्ति प्रायः ऐसे रोगों से ग्रसित रहते हैं, जिन्हें मूंग की दाल पच नहीं पाती, परन्तु जो हष्ट-पुष्ट तगड़े पाचन शक्ति स्वस्थ प्रकृति वाले होते हैं, उनके पास खाने-पीने योग्य कुछ भी नहीं होता। इस प्रकार अनेक व्यक्तियों के पास धन-दौलत ऐश्वर्य की प्रायः कभी कमी नहीं होती, मगर उनमें उसे उपभोग करने या दान देने की प्रवृत्ति कदापी नहीं होती, ये बातें जिन व्यक्तियों में समान रूप से विद्यमान रहती हैं, आचार्य चाणक्य जी उसे पूर्व जन्म का फल मानते हैं। )

  • जिसका पुत्र आज्ञाकारी तथा नारी अपने पति के अनुकूल आचरण युक्त हो, पतिव्रता हो और जिसको प्राप्त धन से ही संतोष या उसके पास जितना भी धन है, उसी में संतुष्टि रखता हो, ऐसे मनुष्य के लिए स्वर्ग इसी धरती पर होता है।
  •  ( व्याख्या - पुत्र का आज्ञाकारी होना तथा स्त्री का पतिभक्ति में लीन होना और मनुष्य का धन के प्रति अत्यधिक अभिलाषी न होना या मन में असन्तोष न जन्म लेने से ही धरती पर स्वर्ग के मिलने जैसा है। ऐसा मानकर विश्वास किया जाता है कि धरती पर स्वर्ग शुभ या तपस्या पूर्ण पुण्य कार्यों के अर्जित होने से ही मिलता है, उसी प्रकार इस जगत् में उपर्युक्त तीन प्रकार के सुख भी व्यक्ति को उसके पुण्य कर्मों के आधार पर ही मिलते हैं। जिस व्यक्ति को ये तीनों प्रकार के सुख मिल जाते हैं उसे अपने आपको इस धरती का श्रेष्ठतम भाग्यशाली व्यक्ति समझना चाहिए। इस जगत् में रचित कुछ चीजें ऐसी होती हैं जो मनुष्य के दुःख का कारण बन जाती हैं। परन्तु असलियत में सभी मनुष्यों में दृष्टिकोट के आधारभूत अन्तर ही तो हैं, जो मनुष्य अपने पुत्र के आज्ञापालक होने और नारी के पतिव्रता होने पर भी अपने द्वारा कमाए धन से सन्तुष्टि प्राप्त नहीं करता है, वह सदैव दुखों के चक्र में फंसकर रह जाता है। उसके मन में सदैव तनाव बसेरा किए रहता है। )

  • यदि पुत्र हो तो पिता का आज्ञाकारी भक्त हो या माता-पिताश्री के दुःखों का निवारण करने में सक्षम हो या दुःख दूर करने में सहायक हो, वही सच्चा पुत्र कहलाने का अधिकारी होता है। ठीक इसी प्रकार सन्तान को पालन-पोषणकर्ता तथा उनके सुख-दुःख में ध्यान रखने वाला ही सच्ची परिभाषा में पिताश्री कहलाने का सक्षम अधिकारी है। अंधा विश्वास करने योग्य व्यक्ति को ही श्रेष्टतम मित्रभक्त या सखा कहा जाता है और अपने पति परमेश्वर को सच्चा सुख प्रादन करने वाली नारी को सच्चा प्रथ प्रदर्शक माना जाता है।
  • ( व्याख्या - इस जगत् में रिश्तों पर आधारभूत सम्बन्ध के प्रकार या श्रेणियां तो अनेक हैं, परन्तु सबसे निकट श्रेष्टतम सम्बन्ध पिता, पुत्र, पत्नी, माता, बहन के रूप में अत्यधिक जन्म लेते हैं, इसलिए अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है, कि माता-पिताश्री की सेवा में तत्पर न रहने वाली सन्तान की परिभाषा को जानना ही व्यर्थ है। इस प्रकार से अपनी सन्तान तथा परिवार का भरण-पोषण का दायित्व निभाने वाला ही श्रेष्टतम पिता होता है तथा श्रेष्टतम मित्र भी उस व्यक्ति को माना जा सकता है, जहां पर मित्रता में कहीं भी अविश्वास का कोई भी अंश विद्यमान न हो। अपने आचरण अनुकूल सुख प्रदान कर वशीभूत कर देने वाली सच्ची पवित्र विशाल हृदय वाली नारी ही श्रेष्टतम पत्नी कहला सकती है। इसका यही अर्थ है कि जान और रिश्तों के सम्बन्ध के सहारे ऐ दूसरे से जबरन जुड़े रहने का कोई आधार नहीं होता, सम्बन्धों के रिश्तों की वास्तविकता तो तभी संभव होती है। जब सभी नर-नारी अपने कर्त्तव्यों का बोध करते हुए एक-दूसरे से बंधकर सुख बनाने का प्रयत्न जीवन भर करते रहें। इसका सच्चा अर्थ यह होता है कि पुत्र को माता-पिताश्री की जीवन भर सेवा करने में तत्पर रहना चाहिए। पिताश्री का दायित्व बनता है कि अपने परिवार का भरण-पोषण उपयुक्त ढंग से भली प्रकार से करें। सच्चे मित्र का दायित्व बनता है कि स्वयं पर भरोसा करने वाले व्यक्ति का विश्वास जीवन भर जीतना और स्त्री का दायित्व बनता है कि अपने पति को जीवन भर दुःखों के भंवर से निकालकर बेल की भांति चढ़कर सुखी बनाना। इन दायित्वों की पूर्ति किए बिना रिश्तों के सम्बन्ध से कोई लाभ नहीं होता है। )

  • स्वयं के उपस्थित न रहने पर किसी व्यक्ति द्वारा किसी से निंदा करना या पीठ पीछे रहकर निंदा या बुराई करना अथवा व्यक्ति के किसी भी कार्य में विघ्न डालना और मुंह पर या उसके समक्ष मीठी चिकनी-चुपड़ी बातें करना सर्वथा उचित नहीं है। ऐसा कुत्सित कार्य करने वाले मित्र को उसी प्रकार छोड़ देना चाहिए, जिस प्रकार ऊपर दूध और नीचे विष से भरे पात्र को उठाकर तुरन्त बाहर फेंक देते हैं।

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