चाणक्य नीति (अध्याय-8) - Indian heroes

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Friday, 24 November 2017

चाणक्य नीति (अध्याय-8)



  • आचार्य चाणक्य ने कहा है कि इस जगत में अधम मनुष्य धन को ही महत्ववान बताते हैं। उन्हें जैसे-तैसे धन कहीं से भी मिलना ही चाहिए, केवल धन प्राप्त कर लेना ही उनके जीवन का एक मुख्य उद्देश्य होता है, इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए वह अपने किसी भी स्तर का इस्तेमाल कर सकते हैं और मान-सम्मान उनके लिए कोई महत्व कदापि नहीं रखता। चमड़ी बेचकर धन कमाने वाली वेश्या की महान कोटि या श्रेणी में ही ऐसे लोगों को रखा जाना चाहिए। मध्यम स्तर या श्रेणी के मनुष्य धन के संग ही मान को महत्व देते हैं। उन्हें धन तो जरूर चाहिए मगर सम्मान देकर नहीं बल्कि सम्मानयुक्त। इस प्रकार से उनके जीवन का महत्व धन और मान दोनों को प्राप्त कर लेना होता है। इन दोनों से पृथक उत्तम श्रेणी के मनुष्य होते हैं। इनके जीवन का महत्व केवल सम्मान को हासिल करते रहना, इनका उद्देश्य बन जाता है। अतः उनका व्यवहार भी उसी प्रकार का होता है।
  • अनेक मनुष्य स्नान ध्यान किए बिना कोई चीज ग्रहण नहीं करते, परन्तु आचार्य चाणक्य के मतानुसार फलों का रस, औषधियां, दूध आदि का सेवन आवश्यकता पड़ने पर आदि से पूर्व किया जा सकता है और उसके पश्चात् शुभ कार्य करने में कोई दोष नहीं होता है।
  • आचार्य चाणक्य ने कहा है कि "दीपक अंधेरे को भक्षण् करता है तो उससे काजल ही धुएं के समान उत्पन्न होता है। जो जैसे भोजन को ग्रहण करता है, उससे वैसे ही विचार या गुण उत्पन्न होते है।"
  • आचार्य चाणक्य ने कहा है- बुद्धीमान मनुष्यों! सदा ही गुणी व्यक्तियों को दान के रूप में धन या अन्य पदार्थ दे देना चाहिए। अन्यथा गुणहीन व्यक्ति को नहीं। अपने मन्तव्य को उन्होंने एक उदाहरण के रूप में लिखा है- समुद्र द्वारा गुणी बादलों को दिया गया खारा जल मेघ के मुंह में जाने के पश्चात मृदु बन जाता है और मेघ उस पानी की वर्षा कर भूमण्डल के समस्त जड़ चेतन को जीवन सुलभ कराता है। वर्षा जल के रूप में मेघ द्वारा बरसा पानी समुद्र द्वारा मेघ को दिए पानी की अपेक्षाकृत करोड़ों गुणी मेघ को पानी दान कर अपने समस्त जल को मृदु बना लिया, जड़-चेतन को जीवन देने का पुण्य कर्म अर्जित कर लिया और दिए गए जल से अधिक मात्रा में दोबारा जल प्राप्त कर लिया। अतः गुणी को प्रदान किया गया दान अति फलप्रद है।
  • तेल लगाने (देह, सिर पर), चिता का धुआं लगने पर (जिस समय श्मशान में जाया जाता है), मैथुन (रति क्रिया) करने के बाद और सौर कर्म (सिर गंजा कराना) के बाद व्यक्ति चांडाल के समान ही अपवित्र होता है, जब तक स्नान कर पवित्र शुद्ध नहीं हो जाता उसे कोई भी सांसारिक कृत्य नहीं करना चाहिए।

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