- आचार्य चाणक्य कहते हैं कि प्रियतम बन्धु! यदि जन्म मृत्यु के बंधन से मुक्ति चाहते हो तो एक ओर काम-क्रोधादि विषयों को विषतुल्य घातक और हानिकारक समझकर तुरन्त त्याग दो तथा दूसरी और दूसरों के दोषों की उपेक्षा द्वारा किए अपकार को सहन करते हुए छल-कपट को त्यागकर मन, वचन एवं कर्म में एकाकार होना, दया, दूसरों के दुःखों को दूर करने की चेष्टा एवं समान उपयोगी समझकर इन्हें प्राप्त करो।
- यदि किसी मनुष्य को अपने मित्रवर के रहस्य अर्थात गुप्त कर्मों का ज्ञान है तो उन्हें प्रकट नहीं करना चाहिए। इससे कोई फायदा नहीं केवल शत्रुता में वृद्धी होती है, जिससे दोनों को ही नुकसान होगा।
- यह विधि की विडम्बना ही है कि स्वर्ण में महक, गन्ने में फल एवं चंदन में फूल नहीं होते। इस प्रकार विद्वान व्यक्ति धनी नहीं होते एवं राजन् दीर्घायु नहीं होते। यदि ईश्वर इसे विपरीत कर देते तो शायद बहुत ही सर्वश्रेष्ठ होता। परन्तु सृष्टिकर्ता ईश्वर की विधि से कोई परिवर्तन करने की क्षमता किसी में नहीं है। सृष्टि का नियम कदापि नहीं बदला जा सकता।
- समस्त औषधियों में अमृत प्रधान है, क्योंकि इसमें समस्त व्याधियों के शमन की कुदरती क्षमता विद्यमान है। समस्त प्रकार के सुखों में भोजन मुख्य है, क्योंकि भूख की विवृत्ति के बगैर व्यक्ति को शान्ति प्राप्त नहीं हो पाती। समस्त इन्द्रियां - आंख, नाक, जीभ आदि में नेत्र ही मुख्य है, क्योंकि दृष्टि के बगैर सर्वत्र अंधेरा है तथा देह के समस्त अंगों में दिमाग यानि चिन्तनशील अंग ही प्रधान है।
- चाणक्य ने कहा है कि यदि ये सातों मनुष्य - विद्यार्थी, सेवक, राह चलने वाला मुसाफिर, भूखा, भयग्रस्त, भण्डारी यानि भोजन-सामग्री का संग्रह कर्ता या द्वारपालक शयन कर रहे हों तो इन्हें निस्संकोच भाव से जागृत कर देना चाहिए, क्योंकि इनके दायित्व-कर्म का निर्वाह या गुजारा इनके जागृत रहने में निहित है, शयन करने में नहीं। इनका निद्रामग्न होना, इनके प्रमाद का सूचक और हानिकारक है, यही कारण है कि इन शयन करते मनुष्यों को जागृत करने पर कृतज्ञता ही मिलती है। जागृत रहने वालों को श्रेष्ठ ही कहा जाएगा।
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