प्रतिज्ञा पत्र की शर्तों के पालन हेतु डॉ आंबेडकर बड़ोदा रियासत की सेवा के लिए बडौदा चल दिए। महाराज बड़ोदा ने आदेश जारी किया कि रेलवे-स्टेशन पर डॉ.अंबेडकर का भव्य स्वागत किया जाए । परंतु एक अछूत का स्वागत कौन करे ? इसलिए उन्हें लेने कोई भी स्टेशन नहीं गया। यह समाचार कि एक अछूत बड़ोदा पहुच रहा है,सारे शहर से जंगल कीआगकी तरह फैल चुका था।कोई भी होटल , सराय या धर्मशाला उन्हें स्थान देने के लिए तेयार न थी,अंत में उन्होंने एक पारसीसराय मे शरण ली ।
कुछ देर भिन्न-भिन्न विभागों में अनुभव दिलाने के बाद महाराजा बड़ोदा डा. अंबेडकर को वित्त मंत्री बनाना चाहते थे। अत: उन्हें सैन्य सचिव नियुक्त किया गया।विदेशोंमें उच्च शिक्षा प्राप्त और सैन्य सचिव जैसे उच्च पद पर आसीन होने के बाब जूद डॉ. अंबेडकर जी को यहा अछूतपन के घोर अपमान झेल ने पड़े ।
डॉ. अंबेडकर के अधीन कर्मचारियों यहाँ तक की चपरासियों ने भी उनके साथ मानवता से गिरा हुआ व्यवहार किया।पहले ही दिन चपरासी ने दूर से ही उनकी टेबल पर फाइल फेंकी । डॉ. अंबेडकर को विस्मय हुआ । उन्होंने झिड़क कर कहा, “टेबल पर फाइल ऐसे रखी जाती है” माफ कीजिए जनाब में आपके निकट नहीं आ सकता क्योकि आप अछूत है और मैं उँची जात का” चपरासी ने उत्तर दिया। डॉ. अबिडकर ने अपने क्रोध पर काबू रखकर कहा, अच्छा तुम्हे पता है कि मैं कितना शिक्षित हूं और मेरी पदवी क्या है”
“जी हां, पता है । आप मिलिट्री सेकेटरी है और डॉक्टर हैं। पर इससे क्या ।आखिर जन्म से तो आप अछूत ही है न |” डा. अंबेडकर मानो सातवें आसमान से गिरे । इसी प्रकार यदि फाइल उठानी होती, तो चपरासी छडी की मूठ से टेबल पर से फाइल अपनी ओर सरकाकर उठाता था । जब डॉ. अंबेडकर कार्यालयमें प्रवेश करते या जाने लगते तो फर्श पर पडे कालीन को लपेटकर उठा लिया जाता।इतना ही नहीं चपरासी उन्हेंपीने को पानी भी नहीं देता था। अपने पीने के पानी की व्यवस्था डॉ. अंबेडकर को खुद ही करनी पड़ती । कार्यालय से जाने के बाद कार्यालय को धोया जाता और गोमूत्र से पवित्र किया जाता
उधर पारसी सराय मे उनके साथ क्या गुजरी इसका दर्दनाक उल्लेख उन्होंने अपनी एक पुस्तक में इन शब्दों में किया है- ‘छुआछूत के कारण किसी हिंदू या मुस्लिम होटल, सराय या धर्मशाला ने आश्रय नहीं दिया….. । भटकते भटकते पारसी लोगों की सराय तक जा पहुंचा… जब सराय के चौकी- दार को बताया कि मैं हिंदु हूँ तो उसने कहा कि सराय में हिंदू नहीं ठहर सकता ।मैंने उसे कहा कि यदि मैं पारसी नाम अपना लूँ तो समस्या हल हो जाएगी और उसे कुछ अधिक लाभ हो जाएगा | चूंकि कई दिनों से उसके पास कोई यात्री नहीं आया था। अत: वह मान गया।मैं सराय मे पारसी नाम से रहने लगा ।
पारसी सराय दो मंजिल की थी | नीचे की मंजिल में सराय का चौकीदार अपने परिवार के साथ रहता था। दूसरी मंजिल पर एक छोटा सा कमरा था जिसमें बिस्तर लगा था । साथमें एक छोटा सा बाथरूम था जिसमें पानी की एक नलकी लगी थी । शेष सारा माग एक बडा हाल था जिसमें पुराना सामान जैसे टूटे बेंच, कुर्सियां, तख्ते और कूड़ाकरकट जमा था । इस तरह के वातावरण में में अकेला ही रहता था । मैं सुबह दस बजे दफ्तर चला जाता और रात लगभग आठ बजे वहाँ से लोटता | कयोंकि हाल में न बिजली थी न तेल से जलने वाला दीपक|हाल में गहन अंधेरा छाया रहता था।चौकीदार मेरे लिए एक छोटी सी लालटेन लाता, जिसकी रोशनी कुछ इंच दूरी से आगे नहीं पहुंचती थी । मुझे महसूस होने लगा जैसे में केद में हूँ! मैं किसी इंसानसे बाते करने को तरस जाता।इस अकेलेपन को मैंने अध्ययन से दूर करना चाहा किन्तु चमगादझें के इधर उधर भागने और शोर मचानेके कारण पढाईभी नहीं हो सकतीं थी। ऐसे से मन ही मन बहुत गुस्सा आता, फिर यह सोचकर मेरा रोष ठंडा पढ़ जाता कि कालकोठरी ही सहीं यह शरण तो है, कुछ न होने से तो यहीं बेहतर है | मेरा जो सामान बम्बई में रह गया था उसे लेकर मेरी बहन का बेटा आया तो मेरी ऐसी बुरी हालत देख जोरजोर से रोने लया । इसलिए मैंने उसे तुरंत वापस भेज दिया।मेंने सरकारी बंगले के लिए निवेदन पत्र दिया , किंतु बड़ोदा रियासत के प्रधानमंत्री को जिस शीघ्रता से मेरे निवेदन पर विचार करना चाहिए था नहीं किया। अत: शामत का दिन आ पहुँचा ।
पारसी सराय से मुझे ठहरे हुए ग्यारह दिन हुए थे । मैं सुबह का नाश्ता कर चुका था और दफ्तर जानेही वाला था कि सीढियों से कुछ लोगों के ऊपर चढ़ने की आहट सुनाईं दो। मैंने सोचा कुछ यात्री ठहरने के लिए आए है । किंतु क्या देखता हूँ कि एक दर्जन पारसी लाठियां लिए मेरी तरफ आए । जल्द ही मुझे पता चल गया कि वे यात्री नहीं ।मेरे कमरे के इर्द-गिर्द घेरा डाल उन्होंने प्रश्नों की बौछार कर दी । “तुम कौन हो, यहा क्यों आए हो? तुमने पारसी नाम अपनाने की हिम्मत केसे की? दुष्ट कहीं का । तुमने पारसी सराय की अपवित्र कर दिया” मैं मौन खडा था, क्या उत्तर देता । पारसियों का यह जत्था मुझे मौत के घाट ही उतार देता किंतु मेरी नरमी और खामोशी ने मेरी मृत्यु को टाल दिया । उन मे से एक ने पूछा, कब खाली कर रहे हो सराय ? यह ऐसा समय था जब मेरा यह ठिकाना, मेरी यह शरण स्थली मुझे अपने जीवन जैसी ही प्यारी धी । मैंने मौन तोडा और उसर दिया, मुझे एक सप्ताह और रहने दो, इतने में सम्बधित मंत्री मुझे कोठी देने की अर्ज़ी मंज़ूर कर देंगे । किंतु पारसी मेरी बात सुनने को तैयार नहीं थे । उन्होंने मुझे अंतिम चेतावनी दी कि वे शाम तक मुझे इस सराय से देखना नहीं चाहते । मुझे अपना बोरी-बिस्तर बांधना होगा । मुझे धमकी देकर वे चले गए । मैं हक्का-बक्का रह गया, मेरा दिल डूबने लगा । मैंने मन ही मन उनको बुरा भला कहा और फूट-फूटकर रोने लगा, क्योंकि मुझसे मेरी अनमोल शरण छीनी जा रही धी । मेरा यह निवास काल कोठरी से बेहतर नहीं था, तो भी मेरे लिए यह मूल्यवान था ।
पारसियों के चले जाने के बाद में सोच में पढ़ गया, तो करूँ तो क्या करूँ ? मैंने सोचा कि मेरी समस्या थोडे दिनों की है,जैसे ही सरकारी बंगला मिल जाएगा, मेरी समस्या का समा- धान हो जाएगा । मैंने तय किया कि मित्रों की मदद ली जाए । बड़ोदा रियासत में मेरे दो मित्र थे। एक हिंदू दूसरा भारतीय ईसाई|मैं पहले हिंदू मित्र के पास गया। मैंने उसे अपनी कहानी बतलाई । उसे मेरी बातें सुनकर दुख हुआ, उसने पारसियों को भी बुरा भला कहा, किंतु यह सब महसूस करने के पश्चात् भी वह कहने लगा, “यदि आप मेरे घर में ठहरने के लिए आ जाएगे तो मेरे सारे नौकर भाग जाएंगें।” मैंने संकेत पा लिया और अपने निवेदन पर ज़ोर नहीं दिया । फिर मैं अपने ईसाई मित्र के पास गया । उसने कहा कि उसकी पत्नी अगले दिन आ रही है, वह उससे सलाह करके बता पाएगा । बाद में मुझे पता चला कि उसका उत्तर भी बड़ा कूटनीतिक था । वे पति-पली, दोनों इसाई बनने से पूर्व ब्राह्मण परिवार से थे। पति तो कुछ उदार विचारों का बन गया था पर पली पहले की भांति रूढिवादी ही रही और इसलिए वह एक अछूत को अपने घर में कैसे रहने देती?
शाम चार बजे मेंने अपने ईसाई मित्र का घर छोडा । मेरे सामने सवाल था, कहां जाऊं? मेरा कोई मित्र तो था नहीं, सराय भी छोड़नी थी, तो फिर जाऊं तो जाऊं कहाँ|मेरे सामने बम्बईं लोटने के सिवाय और कोई चारा न था ।बड़ोदा से बम्बई के लिए रेलगाडी रात नौ बजे रवाना होती थी । मुझे पांच घण्टे का समय बिताना था । कहां गुज़ारू यह समय? सराय जाऊं या अपने मित्र के यहीं जाऊं? सराय जाने का हौसला नहीं था, क्योकि मुझे दर था कि पारसी फिर आकर मुझ पर हमला कर सकते है । मेरी हालत तो दयनीय थी ही, मैं उसे और ज्यादा दयनीय नहीँ बनाना चाहता था। मैंने शहर की सीमा पर स्थित कमाठी बाग में पांच घंटे गुजारने का फैसला किया । मैं थका-हारा और भूखा एक पेड़ के नीचे बैठ गया और फूट-फूट कर रो पडा । वहां बैठे हुवे कई विचार आए। कभी में अपने माता-पिताकी बात सोचता जैसे प्राय:कठिनाई के समय संताने सोचा ही करती है । मेरे साथ यह क्या हुआ, “में सर्वोच्च शिक्षा प्राप्त एक उच्च अधिकारी हूँ, शरीर से, पहनावे से, आचार-विचार, बोलचाल व लिहाज तहज़ीब इत्यादि हर पहलू से मैं इनसे श्रेष्ठ हूँ, फिर भी मेरे साथ इनका इतना बुरा व्यवहार है तो मेरे अनपढ़ गरीब मजदूर लोगों के साथ, जो इनके खेतों व इनकी मज़दूरी पर ही निर्भर है, न जाने क्या व्यवहार करते होगे ।तब ङा. आंबेडकर ने संकल्प लिया कि इस दलित अछूत समाज की कठिनाइयों को में समाप्त करके रहूँगा,यदि न कर सका तो गोली मारकर स्वय को समाप्त कर लूँगा |” इसी सोच में शाम के आठ बज गए । बाग से बाहर निकल मैंने तांगा किराए पर लिया और सराय पहुंचा,अपना सामान नीचे लाया।न तो चौकी -दार और न मैं ही कोई शब्द बोल पाया । शायद उसने महसूस किया होगा कि उसी के कारण मेरे साथ ऐसा बुरा सलूक हुआ है । उसका बिल अदा किया और रेलवे स्टेशन के लिए रवाना हुआ |
वर्षो बीत चुके किंतु पारसी सराय मे मेरे साथ हुई घटना का स्मरण आते ही मेरी आंखी में आसू भर आते है।पहली बार मुझे पता चला कि जो व्यक्ति हिंदू के लिए अछूत हैं यह एक पारसी के लिए भी अछूत ही है ।
डॉ. आंबेडकर इन चपरासियों, अधिकारियों, पारसियों और दूसरे लाखों लोगो,जो जहालत,अशिक्षा,रूढियों एवंअनेक कुप्रथाओं से ग्रस्त हैं, से कहीं अधिक विद्वान, उच्च नैतिकता, उदारता तथा महानता के स्वामी थे । परंतु फिर भी उनके साथ जाति-अभिमानियो ने मानवता से गिरा हुआ व्यवहार किया । यह शोक व मर्मात आघात डॉ. आंबेडकर जैसे महापुरुषों के लिए एक असहनीय आघात था । डॉ. आंबेडकर को इस घटना से बहुत अधिक दुख पहुचा ।
केलुस्कर, जिन्होंने डॉ. अंबेडकर को छात्रवृत्ति दिलवाने में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी,एक बार फिर गति मे आए।उन्होंने महाराजा बडे।दा को डॉ.अंबेडकरकी सारी व्यथा सुनाईं कि किस प्रकार बड़ोदा में डा. अंबेडकर का अपमान किया गया और किस प्यार उन्हें बझेदा रियासत से निकलना पड़ा।परंतु इस भेट और प्रयास का भी कोई लाभदायक परि -णाम न निकला ।
मा. केलुस्कर ने अपने एक मित्र को जो बड़ोदा में प्रोफेसर थे और प्रगतिशील विचार रखते थे, इस बात के लिए तैयार कर लिया कि वह डॉ. अंबेडकर को अपने घर में स्थान देंगें और खर्च आदि डॉ. अंबेडकर से वसूल कर लिया करेंगे ।
जब डॉ अंबेडकर प्रोफेसर के वचन अनुसार और मा. केलुस्कर के कहने पर बड़ोदा पहुँचे,तो प्रोफेसरका लिखा एक पत्र मिला , जिससे लिखा हुआ था कि वह उसके घर न आए , क्योंकि उनकी पत्नी इसके लिए सहमत नहीं है । डॉ. अंबेडकर बड़ोदा स्टेशन से ही वापस लोट आए । इन परिस्थितियो मे डा.अंबेड- कर को महाराजा बड़ोदा,जिसने उनकी शिक्षा प्राप्ति में पर्याप्त सहायता की थी, की रियासत को त्यागना पडा ।
No comments:
Post a Comment