बाबा साहब का पारिवारिक जीवन उत्तरोत्तर दुख पूर्ण होता जा रहा था। उनकी पत्नी बीमार चल रही थीं। उनके तीन पुत्र व एक पुत्री पहले ही देह त्याग चुके थे। 27 मई 1935 को उन पर शोक और दुख का पहाड़ ही टुट पड़ा । निर्दयी मृत्यु ने उनसे उनकी पत्नी रामबाई को छीन लिया । रामबाई ने घोर निर्धनता में भी बडे संतोष व धैर्य से घर का निर्वाह किया और प्रत्येक कठिनाई के समय बाबा साहब का साहस बढाया । उन्होंने सारी उम खुद कष्ट झेले और बाबा साहब को परिवारिक चिन्ताओ व झमेलों से दूर रखने की यथासंभव कोशिश की, ताकि बाबा साहब का ध्यान दलित-उत्थान के मार्ग से विचलित न हो डॉ. अंबेडकर को विश्व-विख्यात महापुरुष बनाने में उनका पूरा हाथ था । बाबा साहब भी उनसे अगाध प्रेम करते थे । रमाबाई की मृत्यु से उन्हें बहुत गहरा आघात लगा । उन्होंने अपने बाल मुंडवा लिए और फकीर से दिखने लगे । इसलिए उनके अनुयायी उन्हें बाबा साहब कहने लगें ।
इसी समय बम्बई सरकार ने 1 जून 1935 से बाबा साहब को सरकारी लॉ कॉलेज का प्रिंसीपल नियुक्त कर दिया । लार्ड ब्रेबोर्न ने बाबा साहब को जिला न्यायाधीश की नौकरी पेश की और साथ ही कहा कि उन्हें शीघ्र ही हाईकोर्ट का न्यायाधीश बना दिया जाएगा। उस समय के नियम के अनुसार कोई सरकारी कर्मचारी राजनीति में भाग नही ले सकता था। बाबा साहब ने घोषणा की, “न्यायाधीश तो क्या यदि मुझे वायसराय भी बनाए जाने का प्रलोभन दिया जाए, तो भी मैं ठुकरा दूँगा । मेरे समक्ष अपनी जनता का भविष्य है, मेरा अपना नहीं ।”
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