“आज आंबेडकर संविधान के राज में भी हमारे लोग ऊपर क्यों नहीं उठ पा रहे जबकि जो पहले से उठे हुए हैं वो और उठते जा रहे हैं? ” … - Indian heroes

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Thursday 19 January 2017

“आज आंबेडकर संविधान के राज में भी हमारे लोग ऊपर क्यों नहीं उठ पा रहे जबकि जो पहले से उठे हुए हैं वो और उठते जा रहे हैं? ” …

लोग अक्सर मुझसे पूछते हैं कि आज जब बाबा साहब के संविधान का राज है, आज जब चरों तरफ मौकों कि कमी नहीं फिर भी हमारे लोग ऊपर क्यों नहीं उठ पा रहे जबकि जो पहले से उठे हुए हैं वो और उठते जा रहे हैं?



सबसे पहला कारन है बहुजनों के पास सही ज्ञान न होना:

ज्ञान ही शक्ति है ज्ञान के बिना मनुष्य पशु के सामान है| ज्ञान शिक्षा व्यस्था या स्कूल कॉलेज से मिलता है पर अगर वहाँ ज्ञान ही न मिले तो आम जनता कैसे ज्ञानी होगी वो किससे अपने दुःख दूर कर सकती है|पुराने समय में गुरुकुल शिक्षा व्यस्था के माध्यम से ज्ञान केवल सत्ताधारी और उसके सहयोगियों के बीच ही सदियों तक घूमता रहा|परिणाम आम जनता कभी समझ ही नहीं पायी की दिन रात मेहनत और ईमानदारी से जीने के बावजूद उनके हिस्से सिर्फ महा-दुःख ही क्यों आये|

आखिरकार बाबा साहब ने संविधान में सबके लिए सार्वजानिक शिक्षा की व्यस्था और शिक्षा का अधिकार सुनिश्चित कर दिया|परिणाम ये हुआ की आम जनता समझने लगी की उनके जीवन का दुःख किसी इश्वर का दिया नहीं अपितु गलत सरकारी निति की वजह से है जिसका समाधान भी इश्वर नहीं राजनीति ही करेगी और उन्होंने राजनीती हिस्सा लेना शुरू कर दिया|ये बात इस देश के धम्म-विरोधियों को  को अच्छी नहीं लगी और सार्वजानिक शिक्षा व्यस्था (सरकारी स्कूल) आज संविधान लागू होने के लगभग साठ साल के अन्दर ही महत्व हीन कर दी गई और गुरुकुल शिक्षा व्यस्था को अंग्रेजी स्कूल के नए रूप में लागू कर दिया गया|सरकारी स्कूल में अक्सर देखा गया है की न तो वहां पढ़ाने वाले हैं न पढने वाले|पहले ज़माने के अनपढ़ के समतुल्य आज सार्वजानिक शिक्षा व्यस्था से निकले व्यक्ति से की जा सकती है और गुरुकुल के से पास सत्ताधारी की तुलना आज के प्राइवेट स्कूल से पास हो रहे लोगों से की जा सकती है|हमारे बहुत से बहुजन सरकारी अध्यापक हैं वे भी इसी रंग में हैं पढ़ाते नहीं जबकि  ऐसे स्कूलों में सबसे ज्यादा बहुजन के बच्चे ही पढ़ते हैं|मैं बहुजन अध्यापकों से अपील करता हूँ की बहुत ज्यादा नहीं पर जितना सिलेबस है उतना तो इमानदारी से पढ़ा ही दो,आपकी कमाई भी सार्थक होगी और बहुजनों का भला भी होगा…

अब तो हाल और भी बुरा है क्योंकि दसवी तक बच्चा पड़ता रहता है फ़ैल ही नहीं किया जाता| दसवीं से बोर्ड भी हटा दिया है| ऐसे में बच्चे और उसके माँ पिता को पता ही नहीं चल पता कि उनका बच्चा कितना ज्ञानी है| परिणाम वो बिना ज्ञान के ही बड़ा हो जाता है ऐसे में वो कोई हाथ का काम या हुनर  भी नहीं सीख पाता| परिणाम वो केवल दूसरों के यहाँ मजदूरी करने लायक ही बचता है|आप खुद देखो ऐसे बहुजनों के बच्चे कॅरिअर बॉय, पिज़्ज़ा बॉय, सेल्स मैन,गार्ड,कॉल सेंटर अदि में अपने जवानी गला रहे हैं और उनका बुढ़ापा अनिश्चित है|
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दूसरा कारन हैं बहुजनों में संगर्ष,समर्पण,प्रेरणा और उत्साह बहुजनों के मुकाबले कम है:

ये बुनियादी इंसानी फितरत है कि वो आराम से जिंदगी बिताना चाहता है, संगर्ष नहीं करना चाहता, ये बात बहुजनों पर भी लागु है और सवर्णों पर भी| ऊपर से नीचे गिरने से बचने को जो प्रेरणा और उत्साह चाहिए वो नीचे से ऊपर उठने वाले कि प्रेरणा और उत्साह से कहीं ज्यादा होती है|यही कारन है नीचे से ऊपर उठने के लिए लोग उतना संगर्ष नहीं करते जितना ऊपर पहुचे लोग अपने को ऊपर बनाये रखने के लिए करते हैं|

मैं टीवी पर किसी फ़िल्मी हीरो  का इंटरव्यू देख रहा था उससे सवाल पुछा गया:-  क्या कभी आप सुबह जिम जाना छोड़ देते हैं?

इसपर उसने जो जवाब दिया वो मुझे हमेशा याद रहता है, उसने कहा “ऐसा बहुत बार होता है कि सुबह उठने को मन नहीं करता, मन करता है कि एक घंटा और सो लूं पर मैं जिस मुकाम पर खड़ा हूँ वहाँ मैं एक घंटे कि नीद अफ्फोर्ड नहीं कर सकता| मैं ये सोच के उठ जाता हूँ कि सो लेंगे इकठ्ठा ही किसी दिन अभी काम कर लेते हैं” वहीँ दूसरी तरत जो नया नया हीरो बनने मुम्बई आया होगा वो चाहे तो एक दिन एक घंटा ज्यादा सो सकता है|

कहीं पढ़ा था कि सपने वो पूरे नहीं होते जिन्हें हम सोते हुए देखते हैं बल्कि सपने वो पूरे होते हैं जिनके लिए हम सोना छोड़ देते हैं|जब भी सुबह मेरा उठने का मन नहीं करता तब ये बात मुझे याद आ जाती है और मैं उठने ko प्रेरित हो जाता हूँ| इसी तरह हम अपने फायदे के बात कहीं से भी पकड़ सकते हैं| ध्यान रहे कि मेहनत है तो सुख है और सुख है तो और ज्यादा मेहनत करने कि प्रेरणा है|

डॉली पार्टन ने कहा था कि “मेरा दृष्टिकोण तो यह है कि आप इंद्रधनुष चाहते हैं तो आप को वर्षा सहन करनी ही होगी।”  यक़ीनन इस दुनिया में कुछ भी बिना संगर्ष के नहीं मिलगा|आपको जो भी चाहिए उसकी कीमत चुकानी ही पड़ेगी, हर चीज़ कि कीमत चाहे वो कोई वास्तु हो या कोई भावना या कोई सुख sabhi कीनैत पहले या बात में मेहनत से चुकानी ही पड़ेगी|

उचाई पर पहुचे शाषक लोग जो बहुत जुल्म कर के ऊपर पहुचते हैं वो जानते हैं कि अगर वो ताकतवर न रहे तो जनता उन्हें मार डालेगी| ये जो डर हैं उनका ये उनको कामयाब बने रहने को मजबूर कर देती है, वो भी आराम करना चाहते हैं पर अफ्फोर्ड नहीं कर सकते|यही वो डर है जिसकी वजह से न वो खुद चैन से बैठता है न ही जनता को चैन से बैठने देता है|वो अपने सपने पूरा करने को जनता का शोषण करते रहते हैं|

ये जिंदगी का बुनियादी नियम है की है कि जो जिस हाल में है वो उसे हालत में रहना चाहता है जब तक कि उसे बदलने को कोई ताकत न लगाई जाए|शाशक को उसकी कुर्सी से गिराने के लिए भी कोई शक्ति चाहिए शोषित को ऊपर उठने के लिए भी कोई शक्ति चाहिए|
यही कारन है की दूसरी तरफ जो शोषित आम जनता है उसने अपनी हालत से समझौता कर लिया होता है | ‘अपनी हालत को बदलने कि उसकी चाह’ शाषक कि ‘शाषक बने रहने कि चाह’ के मुकाबले बहुत कम होती है| जिस शोषित कि चाह शाषक कि चाह से ज्यादा होती है वही बदलाव ला पाता है|

दूसरी बात की जब मेहनत फल देती है तभी मेहनत करने को उत्साह आता है| शशक वर्ग के लोगों ने ऐसी व्यस्था बना राखी है की जो ताकतवर है वही मेहनत का श्रेय और फल ले लेता है|कोई क्यों ताकतवर बनना चाहता है इसीलिए न कि दूसरों कि मेहनत का फल ले सके| कई मानलो में खुद शोषित या आम जनता  में अपनी मेहनत का श्रेय लेने की क्षमता नहीं होती, तो जिसमे क्षणता होती है वो श्रेय ले लेता है| जब श्रेय नहीं फायदा नहीं तो उत्साह नहीं जब श्रेय है फायदा है तभी उत्साह है|

अपना उत्साह बनाये रखना और अपने हकों के लिए संगर्ष करना ही जीवन है वर्ना जानवर और इंसान होने में क्या फर्क रह जाता है|
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तीसरा बड़ा कारन है: शक्तिशाली बहुजनों का अहंकारी होना व् मिशन में रूचि न होना:

बदलाव केवल शक्तिशाली लाते हैं पर जो भी बहुजन शक्तिशाली हो जाता है वो अपने को समाज से काल लेता है|
बहुजनों के राजनेतिक बुद्धा मान्यवर कांशीराम जी ने एक सूत्र दिया था जिसे हम कांशीराम बदलाव सूत्र कह सकते हैं|उन्होंने कहा था कि बदलाव लाने का सूत्र है|

N x D x S= Change

where

N= Need यानि जरूरत

D= Desire  यानि इच्छा

S=STRENGTH  यानि क्षमता या शक्ति

अर्थात बदलाब के लिए तीन चीज़ें चाहिए

नंबर एक है    यानि जरूरत : जब तक लोगों को जरूरत नहीं होगी तब तक वो संगर्ष नहीं करेगा, जैसा कि आज हमारे ही समाज के पढ़े लिखे लोगों के साथ है, वो सुखी है,उनको कोई कष्ट ही नहीं उसलिये उनको जरूरत नहीं|

नम्बर दो DESIRE है  यानि इच्छा: बदलाव कि जरूरत होने से कुछ नहीं होता जब तक कि बदलाव कि इच्छा न हो| जब इच्छा होगी तभी तो संगर्ष किया जायेगा|जैसा कि आज हमारे ही समाज के पढ़े लिखे लोगों के साथ है, वो सुखी है और अपने सुख में वो अपने साथियों और कौम के लिए कुछ नहीं करना चाहते, उनको कोई कष्ट ही नहीं उसलिये उनको बदलाव कि जरूरत नहीं इसलिए उनमें इच्छा नहीं|

नम्बर तीन पर है STRENGTH  यानि क्षमता या शक्ति| बदलाव कि जरूरत और इच्छा से कुछ नहीं होता लैब तक कि बदलाव लाने के बुनियादी क्षमताएं न हों जैसे धन, शिक्षा व् ज्ञान, लीडर, नीति आदि|हमारे पढ़े लिखे लोगों बाद नाम के ही बहुजन रह गए हैं वो जैसे माहौल में पीला बढे होते हैं वहाँ उनकी मानसिकता कट्टर मन्दिरबाज़ कि हो गई है| वो अपने दरवाज़े जागरण करवाएगा मंदिरों को दान देगा, अपने शोषक पुरोहित वर्ग के पाओं पड़ेगा पर मजाज है कि कभी अपनेदकर वाद या बौद्ध धम्म कि बाते सुने भी ले| यही लोग तो समाज कि शक्ति हैं पर जब यही लोग संगर्ष नहीं करेंगे तो बस फिर क्या हो सकता है|
आज हमारे समाज में तीन तरह के लोग है-
१. अशिक्षित एव असक्षम वर्ग
२. शिक्षित वर्ग पर बहुजन संगर्ष से अपरिचित
३. शिक्षित,ज्ञानी,सक्षम और संगर्ष शील वर्ग
-इनमे से जो पहला वर्ग है वो जनसँख्या दबाव या भीड़ के रूप में सबसे ज्यादा संगर्ष को आगे ले जा रहा है |
-दूसरा वर्ग किसी काम का नहीं उल्टा ये विभीषण हैं |
-तीसरा वर्ग संगर्ष की अगुवाई करता है पर इन नए नए हुए ज्ञानियों में अपने आप को श्रेष्ट समझने और अन्य को हीन समझने का रोग लग गया है परिणाम मकसद एक होने के बावजूद ये लोग एक मंच पर नहीं आ पाते|
“ये जिन्दगी का नियम है की ज्ञानी बोलता पहले है पर समझदार पहले सुनता है, तोलता है फिर बोलता है| ज्ञानी होना काफी नहीं है समझदार होना जरूरी है अन्यथा हमारा संगर्ष कहीं नहीं पहुचेगा” .
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चौथा कारन है -बौद्ध धम्म नीति में सुरक्षा कि नीतियां नहीं बदली जा रहीं|

धर्म  किसी कौम कि सुरक्षा नीति से ज्यादा और कुछ नहीं, कहने को इसको किसी भी तरह परिभाषित करते रहो| अगर बौद्ध धम्म नीति इतिहास में असफल कर दी गई और अगर ये अपनी कौम को सुरक्षा नहीं दे पा रहा है तो इसकी नीति में कमी है जिसको सुधारना हमारा परम कर्तव्य है|अकेला सत्य किसी काम का नहीं क्योंकि सत्य वो नहीं जो सत्य है, सत्य वो होता है जो विजेता कह देता है या लिखवा देता है| इसके अलावा बाकि सब बस जनता कि यादें और चर्चाएं मात्र हैं जो समय के साथ धूमिल पड़ती जातीं हैं| कुछ चाहिए तो विजेता कि तरह छीन लो वर्ना विजेता बनने के लिए अपनी क्षमताओं को बढ़ाते रहो|क्षमता ही सबकुछ है”

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