भीमराव अंबेडकर का उच्च शिक्षा के लिए विदेश गमन - Indian heroes

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Friday 30 December 2016

भीमराव अंबेडकर का उच्च शिक्षा के लिए विदेश गमन



पिता की मृत्यु के बाद अब भीमराव को अपना उत्थान स्वयं ही करना था । परिवार के भरण पोषण का दायित्व भी भीमराव के कंधों पर आन पडा था। इधर उच्च शिक्षा की जिज्ञासा मन में हिलोरें मार रही थी । बड़ी विकट परिस्थिति थी । पर जहां चाह वहाँ राह । जीवन में उन्नति करने का एक अन्य स्वर्णिम अवसर जाया । बड़ोदा रियासत के महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ ने कुछ मेधावी छात्रों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए विदेश (अमेरिका) भेजने का विचार बनाया । भीमराव ने इसके लिए आवेदन किया । महाराजा बड़ोदा ने चार लड़को का चयन किया, जिनमें से एक भीमराव अंबेडकर थे।
अमेरिका में शिक्षा प्राप्त करने के बदले से उन्हें एक प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर करने पडे, जिसमें यह वचन था कि शिक्षा प्राप्ति के पश्चात आंबेडकर दस वर्षो तक बड़ोदा रियासत की सेवा कंरेंगे । जुत्नाई 1913 के तीसरे सप्ताह में अंबेडकर न्‍यूयॉर्क (अमेरिका) पहुच गए और कोलंबिया यूनिवर्सिटी में दाखिला ले लिया। उस समय एक अछूत के लिए विदेश जाकर शिक्षा प्राप्त करना कल्पना से भी परे की बात थी | एक अछूत युवक संसार के सबसे धनी देश में शिक्षा ग्रहण करने जा पहुँचा ।
अंबेडकर भारत के संकीर्ण, ईर्ष्या और घृणापूर्ण वातावरण में से गए थे। स्कूल, कालेज और समाज प्रत्येक स्थान पर उनका अपमान किया गया था। परंतु अमेरिका का वातावरण बडा उदार, प्रेमपूर्ण और समानता पर आधारित था। वह प्रत्येक स्वन पर बैठ सकते थे। सभी लोगों के साथ खा-पी सकते थे। कोई किसी की जात नहीं पूछता था । किसी ने उनका हाथ झटक कर खाना लेने से नहीं रोका । किसी ने उन्हें दरवाजे के बाहर फर्श पर बैठकर खाना खाने के लिए नहीं कहा । किसी ने उन्हें अछूत कहकर नहीं दुतकारा । पहले-पहल अंबेडकर को यह सपना सा लगा । उनके लिए अमेरिका एक नया ही संसार था।
इतनी स्वतंत्रता के बावजूद उनके पास सेर-सपाटा व मौज-मस्‍ती के लिए न पैसा था न समय । अंबेडकर जी हमेशा पढाई में ही मग्न रहते । वह तो केवल उच्‍च से उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहते थे । वे दिन मे 18 घंटे पढा करते थे। कभी कभी आंबेडकर पढाई से इतने तीन हो जाते के उन्हे भोजन की भी सुध न रहती । पढाई में इतने लीन हो जाते कि उन्हें पुस्तकालय के बंद होने के समय की भी सुध नहीं रहती थी । लाइब्रेरियन उन्हें ढूँढ-ढूँढ कर पुस्तकालय से बाहर जाने का निवेदन करते । भूख मिटाने के लिए वह काँफी का एक प्याला पीकर काम चला लेते या एक आध डबल रोटी इत्यादि खाकर गुजारा कर लेते थे। अंबेडकर को महाराजा बड़ोदा की ओर से निश्चित की गयी छात्रवृति से प्रति मास घर पर भी कुछ रुपये भेजने पड़ते थे । इसलिए उन्हे बड़े संयम से रहना पडता था । अमेरिका से उन्होंने राजनीतिशास्त्र,  नैतिक दर्शनशास्त्र, मानव विज्ञान, समाज विज्ञान और अर्थशास्त्र आदि विषय पढे। दो वर्ष की मेहनतपूर्ण अनुसंधान के बाद आंबेडकर ने 1915 में “प्राचीन भारतीय व्यापार’  नामक पुस्तक लिखकर एम.ए. की डिग्री प्राप्त कर ली ।
शोघकार्यों में घंटों-घंटो लगाकर को मेहनत करके उन्होंने एक और शोधगरंथ पूरा किया जिसका विषय था ‘भारत का राष्टीय लाभांश’ । यह शोधग्रंथ कोलंबिया यूनिवर्सिटी ने जून 1916 में स्वीकार कर लिया और इस ग्रंथ के आधार पर आंबेडकर को डॉक्टर आंफ फिलोसफी अथार्त PhD की उपाधि प्रदान की। इस प्रकार भीमराव आंबेडकर डॉक्टर आंबेडकर बन गए। बाद में यही शोधग्रंथ ‘ब्रिटिश भारत से राजकीय पूंजी का विकास’ नाम से प्रकाशित हुआ । इस पुस्तक में आंबेडकर ने ब्रिटिश सरकार की धनलोलुप नीति, नौकरशाही
व जनता के शोषण के ढंगों का कडे शब्दों में विरोध किया। जब भी किसी स्थान पर ब्रिटिश साकार की आलोचना की जाती, इस पुस्तक में से उदाहरण प्रस्तुत किए जाते । यह पुस्तक डॉक्टर अंबेडकर ने “मुझें विद्या प्राप्ति के लिए दीं गई सहायता के लिए आभार प्रदर्शन” के शब्दों में महाराजा बड़ोदा सयाजीराव गायकवाड़ को समर्पित की थी ।
इन पुस्तकों ने आंबेडकर साहब की विद्धता को सबके सामने प्रमाणित कर दिया | इन पुस्तको ने डॉक्टर आंबेडकर का नाम उज्जवल कर दिया । उन्हें स्थान स्थान से आमंत्रण पत्र आए। उनके सम्मान में कोलंबिया यूनिवर्सिटी के प्रोफेसरों और छात्रों ने एक शानदार चाय पार्टी दी और आंबेडकर के कठोर परिश्रम व विद्वता की भूरी-भूरी प्रशंसा की।

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