Dusri golmej sammelan ki kuchh rochak baaten - Indian heroes

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Friday, 16 December 2016

Dusri golmej sammelan ki kuchh rochak baaten

        दूसरा गोल मेज सम्मेलन 1931 के आखिर में लंदन में आयोजित हुआ। उसमें गाँधी जी कांग्रेस का नेतृत्व कर रहे थे। गाँधी जी का कहना था कि उनकी पार्टी पूरे भारत का प्रतिनिधित्व करती है। इस दावे को तीन पार्टियों ने चुनौती दी। मुस्लिम लीग का कहना था कि वह मुस्लिम अल्पसंख्यकों के हित में काम करती है। राजे-रजवाड़ों का दावा था कि कांग्रेस का उनके  नियंत्रण  वाले भूभाग पर कोई  अधिकार नहीं है। तीसरी  चुनौती  तेज-तर्रार  वकील  और विचारक  बी आर अंबेडकर  की तरफ़ से थी जिनका कहना  था कि  गाँधी जी और कांग्रेस पार्टी निचली जातियों का प्रतिनिधित्व नहीं करते। लंदन में हुआ यह सम्मेलन किसी नतीजे पर नहीं पहुँच सका इसलिए गाँधी जी को खाली हाथ लौटना पड़ा। भारत लौटने पर उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू कर दिया।

       नए वायसराय लॉर्ड विलिंग्डन को गाँधी जी से बिलकुल हमदर्दी  नहीं थी। अपनी  बहन  को लिखे एक निजी  खत में विलिंग्डन ने लिखा था कि-

       " अगर गाँधी न होता  तो यह दुनिया  वाकई बहुत                    खूबसूरत होती। वह जो भी कदम उठाता है उसे                   ईश्वर की  प्रेरणा  का परिणाम  कहता  है लेकिन  
         असल में उसके पीछे एक गहरी राजनीतिक चाल 
         होती है। देखता हूँ कि अमेरिकी प्रेस उसको गज़ब 
          का आदमी बताती है। लेकिन सच यह है कि हम                   निहायत  अव्यावहारिक, रहस्यवादी और अंधिविश्वासी           जनता के बीच रह रहे हैं जो गाँधी को भगवान मान               बैठी है।"

        बहरहाल, 1935 में नए गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट में सीमित  प्रातिनिधिक  शासन  व्यवस्था का आश्वासन  व्यक्त किया गया। दो साल बाद सीमित मताधिकार के आधिकार पर हुए चुनावों में कांग्रेस को जबर्दस्त सफ़लता मिली। 11 में से 8 प्रांतों में कांग्रेस के प्रतिनिधि सत्ता में आए जो ब्रिटिश गवर्नर की देखरेख में काम करते थे। कांग्रेस मंत्रिमंडलों के सत्ता में आने के दो साल बाद, सितंबर 1939 में दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो गया।  महात्मा  गाँधी और  जवाहरलाल नेहरू, दोनों  ही हिटलर व नात्सियों के कड़े आलोचक थे। तदनुरूप, उन्होंने फ़ैसला लिया कि अगर अंग्रेज युद्ध समाप्त होने के बाद भारत को स्वतंत्रता देने पर राजी हों तो कांग्रेस उनके युद्द्ध प्रयासों में सहायता दे सकती है। सरकार  ने उनका प्रस्ताव खारिज  कर दिया। इसके विरोध में कांग्रेसी मंत्रिमंडलों ने अक्टूबर 1939 में इस्तीफ़ा दे दिया।

           पहले गोलमेज सम्मलेन से दूसरा गोलमेज सम्मेलन तीन प्रकार से भिन्न था। दूसरे सम्मलेन के प्रारम्भ होने तक:

           कांग्रेस प्रतिनिधित्व - गांधी-इरविन संधि की बदौलत इस सम्मेलन में काँग्रेस ने भी भाग लिया। भारत से  महात्मा गांधी को आमंत्रित किया गया था और उन्होंने एकमात्र कॉँग्रेस प्रतिनिधि के रूप में सरोजिनी नायडू के साथ भाग लिया। इसके अलावा मदन मोहन मालवीय, घनश्याम दास बिरला, मोहम्मद  इकबाल, सर मिर्ज़ा  इस्माइल-मैसूर  के दीवान, एस.के. दत्ता और सर सैयद अली इमाम ने भी भाग लिया। गांधीजी ने दावा किया कि एकमात्र कॉँग्रेस ही भारत का राजनीतिक प्रतिनिधित्व करती है और अछूत लोग हिंदू लोग
 हैं और उन्हें "अल्पसंख्यक" के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए; और मुसलामानों या अन्य अल्पसंख्यकों के लिए पृथक मतदाता अथवा अन्य किसी भी प्रकार के सुरक्षा उपाय नहीं होने चाहिए। अन्य भारतीय सहभागियों ने इन दावों को अस्वीकार कर दिया। गांधी-इरविन संधि के अनुसार, गाँधीजी को नागरिक अवज्ञा आंदोलन (सीडीएम) को बंद करने को कहा गया और यदि वे ऐसा करते हैं तो ब्रिटिश सरकार आपराधिक कैदियों को छोड़कर, अन्य कैदियों को मुक्त कर देगी। आपराधिक कैदियों से तात्पर्य उन कैदियों से था जिन्होंने ब्रिटिश अधिकारियों को मारा था। परिणामों से निराश और खाली हाथ, महात्मा गांधी भारत लौटे।
राष्ट्रीय सरकार - दो सप्ताह पूर्व लंदन में लेबर सरकार गिर गई थी। रामसे मैकडोनाल्ड अब कंजर्वेटिव पार्टी के प्रभुत्व वाली राष्ट्रीय सरकार की अध्यक्षता कर रहे थे।
वित्तीय संकट - सम्मेलन के दौरान, ब्रिटेन सरकार ने स्वर्ण मानक कि विनिमेयता रद्द कर दी जिससे राष्ट्रीय सरकार का ध्यान भी भंग हो गया।
सम्मेलन के दौरान, गांधीजी मुस्लिम प्रतिनिधित्व और सुरक्षा उपायों पर मुसलमानों के साथ कोई समझौता नहीं कर पाए। सम्मेलन के अंत में रामसे मैकडोनाल्ड ने अल्पसंख्यक प्रतिनिधित्व के संबंध में एक सांप्रदायिक निर्णय की घोषणा की और उसमें यह प्रावधान रखा गया कि राजनीतिक दलों के बीच किसी भी प्रकार के मुक्त समझौते को इस निर्णय के स्थान पर लागू किया जा सकता है।

                गांधी ने अछूतों को हिन्दू समुदाय से अलग एक अल्पसंख्यक समुदाय का दर्ज़ा देने के मुद्दे का विशेष रूप से विरोध किया। उनका अछूतों के नेता बी.आर. अम्बेडकर के साथ इस मुद्दे पर विवाद हुआ। अंततः  दोनों नेताओं  ने इस समस्या का हल 1932 की पूना संधि द्वारा निकाला।
           

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