2600 वर्ष पूर्व जम्मुद्विप में एक महान सामाजिक परिवर्तन की क्रान्ति हुई थी, और यह सामाजिक परिवर्तन की क्रान्ति मात्र जम्मुद्विप तक सिमित नहीं थी बल्कि इस सामाजिक परिवर्तन की क्रान्ति ने विश्वमानव जगत के जिवनमुल्यो का विकास किया था और करते आ रहा है ! और इस संसार के सामाजिक परिवर्तन के प्रथम जनक गौतम बुद्ध थे ! भगवान बुद्ध के समय चार प्रमुख सम्प्रदाय हुवा करते थे, श्रमण परम्परा के ‘श्रमण’ और इस परम्परा के वर्धमान महावीर का जैन सम्प्रदाय ! बुद्ध और महाविर स्वय: ‘श्रमण’ समुदाय से थे ! आजीवक सम्प्रदाय के संस्थापक मंखालिपुत्त गोसाल का सम्प्रदाय और पाखंडी कर्मकाण्ड करने वाले वैदिकब्राम्हण सम्प्रदाय के 62 प्रकार के लोग थे ! 2600 वर्ष पुर्व इन सम्प्रदायों में हिन्दु कोई नहीं थे और भारत की पहचान उस समय जम्मुद्विप की थी ना की हिन्दुस्थान ! इस निर्विवाद सत्य पर विश्वजगत की मोहर लग चुकी है ! सवाल यह है की इन सम्प्रदायों के स्थापको में मात्र बुद्ध के ही धम्म को संसार में शीघ्रता के साथ सफलता क्यों मिली ? जबकि बुद्ध के समय बुध्द को चुनौती देने के लिये अन्य सम्प्रदाय के संस्थापक मैदान में खड़े थे !भगवान बुद्ध स्वयं श्रमण परम्परा के शाक्य संघ से संबन्धी होने से प्रजातंत्र के संघ के प्रति उनकी बहोत बड़ी आस्था थी और सम्यक सम्बोधि प्राप्ति और प्रथम धम्मचक्र के उपदेश के बाद सर्वप्रथम 60 भिक्खुओं का संघ बनाया जिसका आधार लोककल्याण के साथ प्रजातंत्र था ! इन 60 भिक्खुओं को प्रेरणा मिली और देश-विदेशो में बुद्ध के धम्म को जनमानस में सुनाया ! बुद्ध के समय वैदिकवाद की वर्ण व्यवस्था और पाखंडी अंधविश्वास की कुरतियां प्रचलित थी, यज्ञों में ब्राम्हणवर्गों द्वारा पशुबलि दी जाती थी, समाज का विविध पाखंडी कर्मकाण्डो से अन्याय-अत्याचार होते थे, विद्वानों की विद्धवत्ता सूखे रेगिस्थान की तरह विवादों में बित जाती थी, मुक्ति के नाम पर कोरे हठयोग और झूटी तपस्या से जनमानस की मानसिकता को गुलाम और कमजोर किया जाता था, इसका बुद्ध ने प्रबलता से प्रतिकार करने की आवाज सर्वप्रथम सारनाथ में उठाई!बुद्ध के प्रथम धम्मचक्र के वर्षावास समाप्ति के बाद सारनाथ में संघ की स्थापना की और इन सामाजिक बन्धनों की श्रृंखलांयों की बुराईयों को तोड़ने के लिए बुद्ध और उसके संघ के जनआन्दोलन का अनुमोदन करने के लिए मगध के बिम्बीसार, कौसल के प्रसेनजित, अन्वंती के प्रद्दोद, कौसंबी के उदयन, कापिलवस्तु के शाक्य, वैशाली के वज्जि, मल्ल, भग्ग, कोलिय, कुरु, काशी, गांधार राज्यों के साथ अन्य 6 गणराज्यों के महाराजाओं के साथ इनकी रानियाँ, अनाथपिण्डक और समृद्ध व्यापारी, काशी और 18 राज्यों के प्रतिष्ठित नागरिक, राजवैध जीवक, वैशाली के जनपथकल्याणी आम्रपाली, नाई उपाली, चुंद लोहार, और मल्लिका, अभयराज कुमार, ब्राम्हणों का नेता प्रतिभाशाली व्यक्ति सारिपुत्त और महामोगल्यान, महाप्रजापति गौतमी, शयामावती, शियालकोट की खेमा, भाद्रकापिलानी ऐसे शहस्त्रों व्यक्तिय बुद्ध के संघ में शरण आ चुके थे !बुद्ध की सामाजिक परिवर्तन के प्रचार-शैली बहुत रोचक थी, बुद्ध अपने वाणी से किसी भी सम्प्रदायों की आलोचना नहीं करते थे, जनमानस की योग्यता देखकर देशना देते थे और दान देने की प्रेरना देते थे जब की वैदिक कर्मकाण्डो के ब्राम्हण परस्पर गाली-गलौज और आपस में एक दूसरो का अपमान करते थे इसलिए पिछले 2600 सालो से वैदिकब्राम्हणवाद विदेशो में अंश: मात्र मे अपना स्थान नहीं बना सका और जम्मुद्विप के राजा-महाराजा, प्रतिष्टित व्यक्ति, व्यापारियों और जनमानस में अपना स्थान सुनिश्चित नहीं कर सका ! इन सम्प्रदायों का मात्र कुछ हिस्सों में आज जो स्थान है वह मात्र ब्राम्हणवाद की वर्णव्यवस्था के जातियों की वजह से है ! सम्राट अशोक ने बुद्ध के धम्म को राजाश्रय देकर भिक्खु संघ ने बुद्ध के धम्म की ज्ञान की ज्योति गाँव से गाँव, नगर से नगर, प्रांत से प्रांत, देश से लेकर विदेशों में और एक महाद्वीप से लेकर दुसरे महाद्वीप तक उस सम्यक-सम्बोधि के ज्ञान के प्रकाश की ज्योति को जनमानस में प्रकाशित किया और सामाजिक बन्धनों की श्रृंखलांयों की बुराईयों को तोड़कर जातिविहीन सामाजिक समता का विकास किया ! 12वि सदी के बाद सामाजिक बन्धनों की श्रृंखलांयों की बुराईयों को तोड़ने का श्रेय बाबासाहेब डॉ. आम्बेकर को ही जाता है! आज संसार में बुद्ध के धम्म का अनुकरण करने वाले अनुयायियो की संख्या विश्वजगत में दुसरे नम्बर पर है…….
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अरब के मरुभूमि से लेकर मिस्र और ग्रिक तक, सम्राट अशोक ने संसार के सिरमौर प्रबुद्ध भारत के विस्तार का अध्ययन किया तब यह भी देखा की इन देशो में बुद्ध के सार्वभौमिक शिक्षा के कभी दिन थे, मिस्र के ‘थेराप्युतों’ का अपना जीवन भारतीय थेरवादी बौद्ध भिक्खु के परम्परा से बहुत अधिक मिलते थे ! आज इन थेराप्युतों की परम्परा की ‘थेराप्यूटिक्स’ नाम से पाश्चात्य चिकित्सा का एक अंग बन चुकी है! सम्राट अशोक द्वारा भेजे गए यह वही ‘थेरवादी’ भिक्षु थे जिन्होंने धम्म और जीवनमूल्यो को विकसित करने के लिए अरब के मरुभूमि में कभी हलचल मचाई थी ! सोचता हूँ कभी बुद्ध के धम्म का भी अरब के मरुभूमि में स्वर्णिम युग था ! अरब के मरुभूमि के मिस्र में विविध राजवंशो ने चार सहस्त्र वर्षो तक शासन किया यह भी मुझे याद है और अल-अजहर विश्वविद्यालय, की दीवारों पर आज भी सम्राट अशोक का ‘धम्मचक्र’ विधमान है यह इन्ही राजवंशो की देन है ! यह भी ज्ञात होता है की मिस्र का यूनानी राजा टॉल्मीन, भारतीय बौद्ध साहित्यों का अनुवाद कराने के लिए उत्सुक था ! संसार को मिस्र की सांस्कृतिक सभ्यता ने कुछ दिया तो बुद्ध के धम्म वाणी से कभी मिस्र और अरब के मरुभूमि का सितारा चमक रहा था !
संसार के सिरमौर प्रबुद्ध भारत की ग्रीक में कभी प्रतिष्ठा थी, रोम का सितारा भी कभी चमकता था, और संसार की आँखें कभी ग्रीक पर लगी थी ! बड़े बड़े पर्शियन के राजा साईरस, जराक्सिज और डेरियस अपने लाखो अनुयायों ले साथ एथेन्स पर चढ़े चले जाते थे! ग्रीक ने भी एशिया, यूरोप और अफ्रिका केमहाद्वीपों में कभी अपना राजनीतिक तथा सांस्कृतिक प्रसार किया! ग्रीक के गर्भ में कभी सिकंदर भी जन्मा था, जो सीजर और नेपोलियन के लिए आदर्श बना रहा लेकिन सिकंदर को भी चन्द्रगुप्त मौर्य के सौर्य से दो कदम पीछे हटना पड़ा और सैक्युलस ने भी प्रबुद्ध भारत पर अपने पैर रखना चहा तो ध्यान चन्द्रगुप्त मौर्य के वीरता पर गई और अपनी बेटी हेलना को चन्द्रगुप्त मौर्य को दे दिया! सम्राट अशोक के समय बौद्ध भिक्खु प्रचारक सिकन्दरिया पहुच चुके थे और बुद्ध के धरती के व्यापारीयों ने वहा बस्तिया भी बसा ली थी! ब्राम्हण सेनापति पुष्पमित्र शुंग ने बौद्ध सम्राट ब्रहदत मौर्य की हत्या की तो बौद्ध सम्राट मिलिंद राजा ने ब्राम्हण सेनापति पुष्पमित्र शुंग पर हमला किया और ब्राम्हण सेनापति पुष्पमित्र शुंग और पतांजलि जान हथेली पर लेकर भागते हुए उज्जैन आये !
रोम के इतिहास में संसार के सिरमौर प्रबुद्ध भारत का वैभव का भी अध्ययन किया और देखा की सम्राट अशोक द्वारा भेजे गए धम्म दूतो में महास्थविर महारक्खित ने बुद्ध के धम्म वाणी से प्यासे यूनानी जगत की प्यास बुझाई थी! सम्राट अशोक के ढाई सौ वर्ष के बाद जुडिया प्रदेश में ईसा का जन्म हुवा और बुद्ध के शिक्षा का प्रभाव स्पष्टता दृष्टी गोचर होता है ! सारे इसाई संसार में रोमनचर्च और लैटिन भाषा का एकछत्र आधिपत्य था ! ईसाईयों का पूजा पाठ, गाथाएँ तथा विहार बौध्द संस्कृतीसे परस्पर बहुत मिलते है ! रोमन कैथोलिक गिर्जे के युरोपियन यात्री तिब्बत के विहारों में स्पष्ट बैठे थे ! क्लेमेंट, क्रिसोस्टोम आदि और वर्तमान यूरोप के इसाई लेखको का यहाँ तक कहना है की सिकन्दरिया में भारतीय नागरिकों की बस्तिया थी! यह सब प्रमाण स्पष्ट चीख-चीख कर कहते है की सम्राट अशोक द्वारा भेजे गए बौद्ध भिक्खुओं ने रोम साम्रराज्य के दुर्गम घाटियों में, निर्जन वनों में असभ्य मानव जातीयों मे, कुष्टादि व्याधिपीडित जनसमुहों मे, समाज के सर्वथा अपरिचीत व्यंक्तियो में निस्वार्थ और अनवरत सेवा द्वारा, जख्मों और फोंडो की पीप की परव्हा न करते हुये, संपूर्ण आयु में अपने सम्बंधियों का मुंह तक न देखे बिना अपना कार्य वहा किया है! —·
बौद्ध धम्म ने भारत को विश्व गुरु बनाया और आगे भी बना सकता है|अरब के मरुभूमि से लेकर मिस्र और ग्रिक तक,यूनान से रोम तक बुद्ध की धम्म वाणी ने लगभग समस्त विश्व की अध्यात्म प्यास बुझाई थी…
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