- जिन्होंने केवल पुस्तकों को ही पढ़ा, लेकिन गुरूदेव के पास नहीं पढ़ा बेजार (पति के जीवित रहते हुए परपुरूष से सम्बन्ध) से गर्भवती स्त्री की भांति सभा में शोभा नहीं पाते।
- उपकार करने वाले के संग परोपकार का आचरण करना चाहिए। हिंसा करने वाले के संग हिंसक बन जाना चाहिए। ऐसा करने से मनुष्य दोष का भागी नहीं बनता, क्योंकि दुष्ट के संग दुष्टता का आचरण होना ही युक्तिसंगत (न्याय संगत) होता है।
- जो दूर है, जो मुश्किल से प्राप्त होने योग्य है तथा जो दूरी पर स्थित है, ये सभी तपस्या से साध्य (मिल सकते) हैं, क्योंकि यह सुनिश्चित है कि तपस्या सबसे प्रबल है, अर्थात तप से परमात्मा प्राप्ति भी संभव है।
- व्यक्ति में यदि लालच, लोभ विद्यमान है तो अन्य दुर्गुणों से क्या? (अर्थात लालच सबसे बड़ा निगुण है।) यदि चुगली की आदत है, तो अन्य पापों से क्या (अर्थात चुगली बड़ा पाप है।) सत्यवादी के लिए तप की क्या जरूरत है। शुद्ध हृदय वाले के लिए तीर्थ की क्या जरूरत है। सज्जन के लिए अतिरिक्त गुणों की क्या जरूरत है। कीर्तिवान के लिए आभूषणों की क्या आवश्यकता है। उत्तम विद्या वाले के लिए धन की क्या कमी है। निदा से बड़ी मौत नहीं है। इन गुणों में से एक के रहने पर अन्य उसके बराबर नहीं हैं।
- आचार्य चाणक्य ने बताया है कि विवशता में अपना मार्ग या स्वभाव परिवर्तन कर चलने वाले मनुष्य का यकीन नहीं करना चाहिए। क्योंकि वह फिर कभी वापस पलट सकता है। जो कर्म सच्चे मन से किया जाए, वही सच्चा धर्म है।
- ( व्याख्या - आचार्य चाणक्य ने कहा है कि शक्तिहीन मनुष्य साधु बन जाता है और धनहीन मनुष्य ब्रह्मचारी हो जाता है। किसी असाध्य रोग से पीड़ित मनुष्य देवभक्त बन जाता है तथा वृद्धावस्था में नारी पतिव्रता बन जाती है। उपर्युक्त व्यक्ति विवशता में ही ऐसा करते हैं, स्वेच्छा से नहीं। )
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