- ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों का इष्टदेव अग्नि होता है और ब्राह्मण सभी वर्णों का गुरू यानि शिक्षक या अध्यापक होता है अतः पूजनीय है। नारियों या स्त्रियों का गुरू या जीवनसंगी उसका पति परमेंश्वर होता है। अतिथि समस्त वर्गों या जातियों के नर-नारियों का गुरूजन यानि पूजनीय है। अभ्यागत या अतिथि या मेहमान वह ही होता है, जो गृहस्थी के गृह में अचानक प्रविष्ट होता है और उनका कोई भी स्वार्थ नहीं होता। वह तो अपने मेहमान का कल्याण या पूजन करना चाहता है, इसलिए आचार्य चाणक्य ने अतिथि को श्रेष्टतम पुरूष माना है
- मुसीबतों के डर से न आने तक ही डरना चाहिए। डर आ जाने पर डर का डटकर संघर्ष करना चाहिए।
- जिस प्रकार से बेर की झाड़ियों पर उत्पत्ति बेर और कांटे सामान्यतः एक स्वभाव के नहीं होते है, ठीक उसी प्रकार एक ही समय एक ही माता के जन्मे शिशु भी एक स्वभाव के नहीं होते।
- आचार्य चाणक्य ने कहा है कि यह तो जगत का सबसे पुराना चलन है, कि पंडितों से मूर्ख सदैव ईर्ष्या रखते हैं। निर्धन या दरिद्र बड़े-बड़े धनपतियों या अमीरों से अकारण ही द्वेष भावना रखते हैं। वेश्याएं व्यभिचारिणी स्त्रियां सदैव पतिव्रता नारियों से विधवाएं ईर्ष्या रखती हैं, वास्तव में होना तो यह चाहिए कि पंडित मूर्खों से, धनी निर्धनों की, कुल स्त्रियां वेश्याओं की ओर सौभाग्यवती स्त्रियां विधवाओं का तिरस्कार करें, परन्तु होता विपरीत है। वस्तुतः हीनभावना ग्रसित मनुष्य अपनी दीनता को ढकने के लिए, दूसरों पर दोषारोपण करके या उनमें दोष निकालते हैं, यही इस जगत का चलन है।
- आलसी मनुष्य विद्या की रक्षा नहीं कर सकता, दूसरों के हाथ में पहुंचाया गया धन कभी आवश्यकता के समय मिलता नहीं। खेत में कम बीज डालने से खुशहाल फसल होती नहीं और सेनापति के बिना सेनाएं रणनीति बना सकती नहीं।
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